रचना के विवरण हेतु पुनः पीछे जाएँ रिपोर्ट टिप्पणी/समीक्षा

सावरकर (न भूतो न भविष्यति)

सावरकर माने तेज,सावरकर माने त्याग,

सावरकर माने तप,सावरकर माने तत्व,

सावरकर माने तर्क,सावरकर माने तारुण्य,

सावरकर माने तीर,सावरकर माने तलवार... 

अटल जी के ये शब्द कल से कानों में गूंज रहे हैं। मन उद्विग्न है और विचारों का बवंडर  थमने का नाम नहीं ले रहा, कभी-कभी मुझे ये लगता है की मै पूर्वजन्म में अवश्य ही किसी क्रांतिकारी परिवार में रही होंगी, क्यूंकि जब भी भारत देश या स्वराज्य ऐसी बातें सुनाई पड़ती है मेरी धमनियों में रक्त प्रवाह तीव्र हो जाता है, मेरी लेखनी कुछ लिखने को आतुर हो जाती है और मेरा मन तब तक शांत नहीं होता जब तक मै अपनी बात सबसे कह ना दूँ।

आज भी वही अनुभव कर रही हूँ इसलिए आपके समक्ष प्रस्तुत हूँ अपने मन में उठ रहे विचारों को लेकर...

कल रात सपरिवार वीर सावरकर जी के जीवन पर आधारित फिल्म “स्वातंत्र्य वीर सावरकर” देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। और सच कहूँ तो इसे मै मेरा सौभाग्य ही मानूँगी, जिन महान विभूतियों के बारे में पढ़ कर हम बड़े हुये उनके बारे में अब जाकर बात हो रही है पहले परम श्रद्धेय अटल बिहारी जी और अब स्वतन्त्रता संग्राम के अमर सिपाही वीर सावरकर,

मेरा यह मानना है कि फिल्में एक सशक्त माध्यम है आम जनता तक अपनी बात पहुचानें का, फिल्मों से हर आयुवर्ग के लोग प्रभावित होते हैं कई बार फिल्मों के संवाद, पहनावे और कहानी की नकल आम आदमी अपने जीवन में करता है। ऐसे में इतिहास के महान व्यक्तियों के जीवन पर आधारित फिल्में बनना अपने आप में बड़ी बात है, फिल्म कैसी बनी है? निर्देशन कैसा हुआ है ? हिट है या फ्लॉप? ये सभी बाते गौण है। आलोचक क्या कहते हैं ये सब बाद की बाते हैं परंतु उस फिल्म को देखना और उस चरित्र के बारे में जानना महत्वपूर्ण होता है।

ऐसी फिल्मों को बनाते समय बस एक बात याद रखना चाहिए कि सत्य को तोड़-मरोड़ कर ना दिखाया जाये, अभिव्यक्ति कि स्वतन्त्रता के नाम पर इतिहास में मनमाफिक बदलाव ना किए जाएँ, यह निर्माता की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए।

इस फिल्म में निर्माता ने सत्य को काफी हद तक वैसे ही दिखाया है जैसे घटनाएँ घटित हुई हैं। ऊपर लिखी हुई अटल जी की पंक्तियाँ पर्दे पर दिख रहे किरदार पर पूरी तरह जँचती हैं। आप फिल्म देखते समय उस तेज, उस त्याग और तलवार की धार को महसूस कर सकते हैं।

यह फिल्म हर देशभक्त को अवश्य देखनी चाहिए।  

 मै एक बात और कहना चाहूंगी कि आज़ादी के महायुद्ध में जिन वीर बलिदानियों नें अपने प्राण न्योछावर कर दिये वे सभी महान थे परंतु वे जिन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन एक विचारधारा को समर्पित कर दिया और एक तपस्वी की तरह अपने अंत समय तक देश की सेवा करते रहे उन्हे कोई पहचाने या नहीं परंतु उनका त्याग भी किसी शहीद से कम नहीं है।

बड़े आश्चर्य की बात है कि भारत के अभ्यासक्रम में कहीं भी आपको ऐसे देशभक्तों का उल्लेख नहीं मिलता, देशभक्त और क्रांतिकारियों कि लिस्ट में कुछ गिने-चुने ही नाम आते हैं और यदा-कदा नाम मिल भी जाए तो उनके कुछ साधारण से कार्यों का वर्णन होता है जिसे पढ़कर सबको यही लगता है कि इनका आज़ादी में कुछ खास योगदान नहीं था। फिल्म देखने के बाद मैंने जितने भी लोगों से सावरकर जी के बारे में बातचीत की सभी का यही उत्तर था

“उनका कुछ खास योगदान नहीं था बस एक बार जहाज से कूद गए थे ऐसा सुना है और कालापानी की सजा हुई थी”

मै उनको दोष नहीं देती जो यह कहते हैं कि हमें सावरकर नहीं पता, बचपन से शाला के पाठ्यक्रम में ऐसा कोई अध्याय आया ही नहीं जो उनकी महत्ता बता सके, कॉलेज में कला और साहित्य विभाग में भूले-भटके एक चैप्टर होगा जिसमे भी केवल दो-चार बातें ही बताई गयी। कहाँ से पता चलेगा कि सावरकर सिर्फ एक क्रांतिकारी और देशभक्त नहीं एक तेजस्वी इंसान थे, एक बेटा,पति,पिता और आदर्श भाई भी थे, अपने परिवार से अटूट प्रेम करने वाले पर अपनी मातृभूमि को सबसे ऊपर मानने वाले प्रखर वक्ता भी थे। एक प्रेमी जिसने अपनी पत्नी के विरह में सेल्यूलर जेल की दीवारों पर कवितायें लिख दी तो दूसरी तरफ एक उग्र क्रांतिकारी जिसने ब्रिटेन में रहकर बॉम्ब बनाने की विधि खुद भी सीखी और अन्य भारतीय मित्रों को भी सिखायी,

एक तरफ अपने बेटे की मृत्यु पर फूट-फूट कर रोने वाला पिता तो दूसरे ही पल मदनलाल ढींगरा की शहादत पर गर्व करने वाला विनायक,

उनके व्यक्तित्व के इतने निराले पहलू आपको दिखेंगे यदि आप उन्हे जानने की कोशिश करेंगे, तो उस महासमुद्र में डूब जाएंगे...

उस ज्वालामुखी का वर्णन मेरी लेखनी से करने की न ही मेरी योग्यता है न पात्रता, बस अपने मन में उमड़ रहे कुछ विचारों को आपके समक्ष प्रस्तुत करने का साहस कर रही हूँ, चूंकि आज शहीद दिवस भी है, इसलिए उन नौजवान शहीदों को नमन है जिन्होने सावरकर जी को अपना आदर्श मानकर देश के लिए प्राणों का बलिदान दिया था।

 

वीर सावरकर का नाम आते ही ब्रिटिश खेमे में दहशत का वातावरण निर्मित हो जाता था और हृदय की धड़कन तेज हो जाती थी।परंतु भारत का एक बड़ा और संभ्रांत वर्ग गांधी जी से उनके मतांतर के कारण उनके स्वतंत्रता संग्राम योगदान और उनकी पवित्र आहुतियों पर बिना विचार विमर्श किए, नकारात्मक टिप्पणी करने से नहीं चूकते थे, आज भी लोगो के मन में यही धारणा है, एक और गंभीर आरोप जो उन पर लगता आ रहा है वह है अंग्रेजों से माफी मांगने के विषय में...

एक नौजवान जो देश के लिए इतना कुछ करना चाहता था, जिसने अपने भविष्य की परवाह ना करते हुये विदेश में भी भारत की स्वतन्त्रता में योगदान के लिए अनेकों लोगो को प्रेरित किया, अपनी सतत और धाराप्रवाह लेखनी और ओजपूर्ण वक्तव्यों से ना केवल ब्रिटेन में बल्कि भारत के क्रांतिकारियों में जोश भर दिया था। उसे भारत आने पर बिना सोचे सीधे कालापानी भेज दिया गया, 50 साल की सजा जो भारत के क्या विश्व के इतिहास में किसी दोषी को नहीं सुनाई गयी थी, ऐसी क्रूरतम सजा पाने वाले वो अकेले कैदी थे। सेल्यूलर जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था, और सावरकर जी चाहते थे की भले ही वहाँ सब दोषी सजा भुगत रहे थे परंतु उनको जानवरों की तरह यातना और प्रताड़ना नहीं देनी चाहिए, एक कैदी को जेल में भी उसकी बुनियादी सुविधाएं मिले इसलिए उन्होने जेल में भी आंदोलन को जारी रखा, पर वो समझ चुके थे कि ये अंग्रेजों की साजिश थी कि वे वहाँ रहकर सड़ते रहें और यहाँ भारत में ब्रिटिश राज ऐसे ही कायम रहे, इसी कारण उन्होने कई बार पत्र लिखकर ये याचना की , चूंकि वे एक वकील भी थे अतः वे जानते थे वो क्या कर रहे हैं।

 उनकी याचिका हर बार खारिज कर दी गयी उन्हे सभी कैदियों से अलग अंधेरी कोठरी में डाल  दिया गया, यहाँ तक कि इस हद तक परेशान किया गया कि दो बार वो मरते-मरते बचे थे।

पर आज भी उनका विषय निकलने पर यही कहा जाता है कि उन्होने अंग्रेजों से माफी मांगी थी। दुर्भाग्य का विषय है कि मर्सी पिटिशन का क्या आशय है? और मर्सी पिटिशन क्यों लगाई गई? किसने लगवाई? कितने कैदियों को सावरकर जी ने उनके अधिकार दिलाये?ये सब कोई जानना नहीं चाहता।

 इन सब षड्यंत्रों के बावजूद वीर सावरकर को जानने वाले और मानने वाले उन्हे भगवान से कम नहीं समझते आधुनिक भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी वीर विनायक दामोदर सावरकर के विषय में आज “शहीद दिवस” पर कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण बातें प्रस्तुत हैं जो भारत के हर नागरिक को जानना चाहिए।

 

भारत के इतिहास के इस चमकते सितारे का जन्म 28 मई 1883 को नासिक के भगूर गाव में हुआ, तीन भाई और एक बहन में विनायक दूसरे नंबर पर थे। एक और जहां सामान्य परिवार के लोग अपने बच्चों को चिड़िया रानी, जंगल का राजा ऐसी कहानियाँ सुनाते है वहीं विनायक के माता-पिता अपने बच्चों को शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप, भगवान राम और भगवान कृष्ण की कहानियाँ नित्य सुनाते थे। ऐसा कहते हैं की ‘पूत के पाँव पालने में’ ही नजर आ जाते है उसी प्रकार बालक विनायक को भी वीररस से ओतप्रोत पोवाड़े पसंद आते थे। और वो बड़ी जल्दी उन्हे कंठस्थ कर लिया करते थे। एक योगयोग ऐसा भी है उनके जन्म के बारे में कि उनके जन्म के कुछ दिन पूर्व “कार्ल मार्क्स” कि मृत्यु हुई थी और जन्म के कुछ दिन पश्चात “मुसोलिनी” का जन्म.....ये दोनों ही नाम विश्व में क्रांति के क्षेत्र में कितने महान है ये हम सभी जानते है। युवावस्था में आते तक विनायक अपने मित्रों और आस पास के लोगों के लीडर बन चुके थे, देश के लिए बलिदान देने वाले क्रांतिकारी उनके लिए देवता थे और उनकी जीवनी ग्रंथ……..

विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार हो या अभिनव भारत समूह कि स्थापना ये सभी कार्य उन्होने कॉलेज के शुरुवाती दिनों में कर लिए थे, विदेशी शासन का विरोध , महारानी विक्टोरिया के निधन को राष्ट्रीय शोक न मानना तथा विदेशी कपड़ों कि होली जलाना ऐसे कुछ अभूतपूर्व कार्यों को राष्ट्रद्रोह का नाम देकर उन्हे कॉलेज से निष्कासित भी किया गया, पर वो सावरकर थे.....

वो कहाँ रुकने वाले थे। उनका ये तेज दिन-ब-दिन बढ़ता ही गया...वे भारत में रहे तब भी और बेरिस्टर बनने लंदन गए तब भी...

किसी को उनकी ताकत का अंदाजा भी नहीं था, क्यूंकि जो काम वो यहाँ भारत में रह कर अपने देश के लिए करना चाहते थे वही काम उन्होने लंदन से भी जारी रखा, अपनी ओजस्वी वाणी और प्रगल्भ नेतृत्व के कारण वो वहाँ भी क्रांतिकारी भाइयों के चहेते बन गए थे। उनके निजी जीवन में बेहद उतार-चढ़ाव आए, उनके परिवार पर एक के बाद एक संकट आते गए, आर्थिक तंगी तो थी ही पर एक क्रांतिकारी का परिवार होने के नाते उन्हे सामान्य जीवन भी ठीक से नहीं जीते आता था पर विनायक की  तरह ही उनके बड़े और छोटे भाई दोनों ने भी देशहित के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर दिया।

वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे, जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का विरोध किया और कहा कि वह हमारे शत्रु देश की रानी हैं हम शोक क्यों करें? क्या किसी भारतीय महापुरुष के निधन पर ब्रिटेन में शोक सभा हुई है? वीर सावरकर पहले देशभक्त थे जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बेकश्वर में बड़े-बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ। विदेशी वस्त्रों की पहली होली पुणे में 7 अक्टूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी। वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया तब बाल गंगाधर तिलक जी ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी। सावरकर जी द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गांधीजी उनके मार्ग पर चले और उन्होने भी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। वीर सावरकर पहले भारतीय थे, जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया और 10 रु का जुर्माना किया। इसके विरोध में हड़ताल हुई स्वयं तिलक जी ने केसरी पत्र में सावरकर के पक्ष में संपादकीय लिखा। वीर सावरकर ऐसे बैरिस्टर थे जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफादार होने की शपथ नहीं ली इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नहीं दिया गया। वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा Sepoy mutiny (बगावत) कहे जाने वाले 1857 के संघर्ष को “सन् 1857 का स्वातंत्र्य समर”(1857 चे स्वातंत्र्य समर) नामक पुस्तक मराठी में लिखकर इसे एक महसंग्राम घोषित कर दिया।

 उनकी इस पुस्तक को छापने के पूर्व ही बैन कर दिया गया था। भारत में भगत सिंह जो कि सावरकर जी को अपना गुरु अपना बड़ा भाई मानते थे उन्होने छुपकर इस पुस्तक का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया और जगह-जगह इसकी प्रतियाँ बाटीं थी।

यह पुस्तक भारतीय क्रांतिकारियों के लिए पवित्र गीता थी।यहाँ तक कि सुभाष चन्द्र बोस द्वारा निर्मित आज़ाद हिन्द फौज में यह पुस्तक बुनियादी वस्तुओं के साथ दी जाती थी। ताकि सभी जवान इससे प्रेरित होकर देश कि स्वतन्त्रता में पूर्ण सहयोग दें।

ब्रिटिश पुलिस ने अनेक घरों और संस्थानो पर छापा मारकर इस पुस्तक को जप्त किया और प्रतियाँ जला दीं पर सावरकर जी के अनुयायी कहाँ रुकने वाले थे, उनका प्रभाव युवा पीढ़ी पर इतना अधिक था कि 17-18 साल के युवा भी उनसे प्रेरित होकर सशस्त्र क्रांति में कूद पड़े थे।

भारत आने के पूर्व ही उनकी ख्याति सर्वत्र पसर रही थी और दूसरी तरफ ब्रिटिश उनकी इस लोकप्रियता से चिंतित थे और किसी न किसी प्रकार षड्यंत्र करके उन्हे फसाना चाहते थे।

उनके साथी मदनलाल ढींगरा द्वारा कर्ज़न वायली की हत्या के बाद उनपर भी अंग्रेजों का शिकंजा कस गया, चूंकि ब्रिटेन के कानून में उन्हे कुछ सहूलियत मिलने की संभावना थी अतः बिना देर किए उन्हे एक “राजनैतिक बंदी” बना कर जहाज द्वारा ब्रिटेन से भारत लाये जाने का निर्णय किया गया। पर अटल जी कहते हैं ना

 “सावरकर माने तीर”

 वो कैसे रुक सकते थे, वो स्वयं बेरिस्टर थे वो जानते थे की भारत में उन्हे सुनवाई का अवसर नहीं दिया जाएगा इसलिए जहाज से आते समय 8 जुलाई 1910 को “मार्सिलीज” के अथाह समुद्र में वो कूद पड़े थे। सामने विशाल समुद्र और पकड़े जाने पर कालापानी की क्रूर सजा, दोनों ही जानलेवा थे पर सलाम है उस अदम्य साहस को...

उन्होने अंत तक हार नहीं मानी और उस खारे पानी को चीरकर किनारे तक पहुँच गए।  

विनायक सावरकर भारत के एकमात्र क्रांतिकारी थे जिनका मुकदमा अंतरराष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला, परंतु यहाँ भी ब्रिटिशों की साजिश के कारण उनको बोलने का मौका नहीं दिया गया  और बंदी बनाकर भारत लाया गया। वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने दो आजन्म कारावास (50 साल) की सजा सुनाई थी। सजा सुनते ही वे हंसकर बोले “चलो ब्रिटिश लोगो ने हिंदू धर्म के पुनर्जन्म के सिद्धांत को मान लिया”

 वीर सावरकर पहले राजनीतिक बंदी थे जिन्होंने काला पानी की सजा के समय 10 साल से भी अधिक समय तक स्वतंत्रता के लिए कोल्हू चलाकर 30 पौंड तेल प्रतिदिन निकाला।

एकमात्र ऐसे कैदी थे जिन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएं लिखीं और 6000 पंक्तियां याद रखीं।जेल से निकालने पर उन्होने उस महाकाव्य को पुस्तक का स्वरूप प्रदान किया, वे पहले लेखक थे जिनकी लिखी हुई पुस्तकों पर आजादी के बाद कई वर्षों तक प्रतिबंध लगा रहा।

वि.दा. सावरकर ने हिन्दू व हिन्दुत्व की परिभाषा लोगों को समझायी....

वे कहते थे “हिन्दू भारतवर्ष के देशभक्त वासी हैं जो कि भारत को अपनी पितृभूमि एवं पुण्यभूमि मानते हैं। आसिन्धुसिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिकाः। पितृभूपुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितिस्मृतः ॥ (प्रत्येक व्यक्ति जो सिन्धु से समुद्र तक फैली भारतभूमि को साधिकार अपनी पितृभूमि एवं पुण्यभूमि मानता है, वह हिन्दू है।)

समुद्र से हिमालय तक भारत भूमि जिसकी पितृभूमि है, जिसके पूर्वज यही पैदा हुए हैं व जिनकी यही पुण्य भूमि  है, जिसके तीर्थ भारत में ही हैं वही हिंदू है। सावरकर जी ने सुभाषचन्द्र बोस जी को प्रेरित किया और भारत की सशस्त्र क्रांति में उनके योगदान के लिए प्रशंसा की, उन्हे पत्र लिखकर उत्साहवर्धन करते रहे।

वे जात-पात नहीं मानते थे, सभी धर्म और जातियाँ समान है ऐसा उनका मानना थे “सनातन धर्म” भी हिन्दुत्व का ही एक भाग है ऐसा उनका स्पष्ट मत था, “तुम अपने आप को मुसलमान कहते हो इसलिए मै खुद को हिन्दू कहता हूँ वरना हम सभी भारत माता की संतान हैं” ये उनके वाक्य थे।

 उन्होने अस्पृश्यता को मिटाने के लिए निम्न वर्ग के लोगों का विट्ठलनाथ मंदिर में प्रवेश कराया। महाराष्ट्र के रत्नागिरि में पतित पावन मंदिर की स्थापना भी की। जहां पर सभी का प्रवेश मान्य था।

“सावरकर जी ने जाति प्रथा को भारत की सांस्कृतिक एवं राजनीतिक एकता में बाधक मानते हुए कहा- " भारतीय समाज में प्रचलित स्पर्श बंदी, व्यवसाय बंदी,रोटी बंदी, बेटी बंदी रूपी जाति प्रथा के चार पैर ही भारतवर्ष में 800 वर्ष की गुलामी का कारण हैं। जब तक जात-पात का उन्मूलन नहीं होगा,तब तक हम किसी न किसी रूप में किसी न किसी के द्वारा गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहेंगे।"

वे बड़े विश्वास से कहते थे की अंतरजातीय विवाह करो क्यूकि ऐसा करने से कुछ पीढ़ियों बाद भारत में कोई जात-धर्म नहीं होगा सब केवल हिन्दू होंगे और भारतीय कहलाएंगे। उनकी यह क्रांतिकारी सोच उस समय किसी को हजम नहीं होती थी और उनके मानने वालों से अधिक उनके शत्रु उत्पन्न हो गए थे।  

  जब भारत का विभाजन यह कहते हुए स्वीकार किया गया कि " सदैव के लिए हिन्दू-मुस्लिम समस्या का समाधान करने हेतु ही हम भारत का विभाजन स्वीकार कर रहे हैं " तब भी सावरकर जी ने भारत विभाजन का विरोध करते हुए कहा था- " देश को खंड-खंड करने वालों को मैं चेतावनी देता हूं कि देश के बंटवारे से यह समस्या सुलझने के स्थान पर और भी अधिक उलझ जाएगी। पाकिस्तान की स्थापना होते ही यह समस्या और भी तीव्र रूप धारण कर लेगी।" 

आगे भविष्य में वही हुआ...

 

वे गांधीजी और नेहरू जी की नीतियों से सहमत नहीं थे परंतु उन्होने कभी भी देश में रहने वाले किसी व्यक्ति किसी भी भारतीय की हत्या या उससे संबंधित गतिविधि नहीं की, एक व्यक्ति के रूप में वो सभी का सम्मान करते थे। जब गांधी जी की हत्या हुई तब उन्हे भी संदेह के घेरे में रखा गया, जेल में डाल दिया गया परंतु न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने की बाद ससम्मान रिहा कर दिया। उनके राष्ट्रवादी विचारों से अनेक राजनेता घबराते थे। उनकी तीखी वाणी, स्पष्टवादिता और निर्भीक स्वभाव अनेकों की आँख की किरकिरी था।

  उनका भय इतना था कि मरणोपरांत भी उन पर अनेक केस चलते रहे, उनके विचार उनका साहित्य उनकी तेजस्विता का अनुकरण करके कोई दूसरा वीर सावरकर ना पैदा हो जाये इस डर से उनके बारे गलत प्रचार करके उनकी छवि को धूमिल कर दिया गया। जब 26 फरवरी सन् 1966 को उनका निधन हुआ तब भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने शोक प्रस्ताव रखा तो यह कहकर रोक दिया गया कि वे संसद सदस्य नहीं थे।वीर सावरकर ऐसे पहले राष्ट्रवादी विचारक थे जिनके चित्र को संसद में लगाने से रोक लगा दी गयी थी। उनके शिलालेख को सेल्युलर जेल के कीर्ति स्तंभ से जानबूझ कर हटा दिया गया।

ये तो थे क्रांतिकारी सावरकर...इसके अलावा उनके बहुमुखी व्यक्तित्व का एक और भाग था उनकी लेखनी....सावरकर जी ने मराठी और अँग्रेजी भाषा में 40 के लगभग पुस्तकों की रचना की जिसमे लेख, कवितायें, नाटक, कहानी और आत्मवृत्त शामिल हैं। मराठी भाषा के अनेक शब्द उनकी ही देन हैं, वे अपने लेखन से देश में क्रांति लाना चाहते थे और उनकी पुस्तकों ने देश में ही नहीं विदेशों में भी प्रसिद्धि प्राप्त की। रूढ़िवादिता और अंधविश्वास का वे पुरजोर विरोध करते थे। कला और विज्ञान जो की दो एकदूसरे से भिन्न बातें है उसके तो वो विद्वान थे ही, साहित्य और लेखन जो की विज्ञान से काफी अलग बातें है उसमे भी उनका हाथ कोई पकड़ नहीं सकता था... उनके लिए तार्किक होना भी उतना ही महत्वपूर्ण था जितना की भावनिक होना।

 उन्हे विभिन्न भाषाओं की पकड़ थी उन्होने मराठी भाषा में 45 से अधिक नए शब्दों का समावेश किया, मातृभाषा होने के कारण उनका मराठी से प्रेम था ही परंतु वे हिन्दी भाषा को भी उतना ही महत्व देते थे, भारत देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी होनी चाहिए ये उनका ही आग्रह था।  

मराठी, हिन्दी और अँग्रेजी तीनों भाषाओ का अध्ययन व इन भाषाओं के अनेक प्रकार के ग्रंथो का वाचन और विवेचन भी किया।

  वे कभी प्रेम और धैर्य की पराकाष्ठा थे तो कभी अग्नि से भी अधिक दाहक...

 कभी सूर्य की तरह प्रखर तो कभी समुद्र की तरह विशाल…

उनके व्यक्तित्व को कुछ शब्दों में बताना ठीक उसी तरह होगा जैसे सूरज के सामने एक छोटी सी लौ जलाना.....

उनका जीवन एक जलती मशाल था, जहां भी किसी के अधिकारों का हनन हो रहा हो वो चुप नहीं बैठते थे। कोई सोच भी नहीं सकता था कि वो ऐसा कुछ कर सकते है।

 अपने जीवन में उन्होने ऐसे अनेक वीरतापूर्ण कार्य किए है।

सावरकरजी के जीवन का उद्देश्य अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाना था, चाहे वो ब्रिटिश राज के खिलाफ हो या समाज में रहने वाले रूढ़िवादी लोगों के खिलाफ......

उन्होने ऐसे लोगों के हक़ में लड़ाई की जो उपेक्षित थे, जिन्हे समाज में मान नहीं मिलता था, वे   ये आग्रह करते थे कि अपने अधिकारों के लिए सबको लड़ना चाहिए, अपने जीवन के अंत तक उन्होने केवल दूसरों को उनके अधिकारों के बारे में बताया और समझाया कि जहां कहीं भी अन्याय हो अत्याचार हो वहाँ चुप नहीं बैठना।

ऐसे थे वीर सावरकर.........

अपने शब्दों से अपनी लेखनी से उन्होने अपने देश को इतना कुछ दिया है जो गिना ही नहीं जा सकता, उनके विचार उनके काव्य संग्रह, उनकी कालापानी की सजा, यही नहीं उनके जीवन से जुड़ी हर छोटी बड़ी बात आज हम सबके लिए प्रेरणादायी साबित हो सकती है। इस फिल्म को बनाकर निर्माता ने एक बार फिर सभी को इतिहास के पन्नों में खो चुके इस वीर की जीवनी से परिचित कराने का प्रयत्न किया है। इस अभूतपूर्व प्रयास के लिए सम्पूर्ण देश उनका ऋणी रहेगा। वक़्त आ गया की धूल की परत चढ़ चुके इतिहास को आज की युवा पीढ़ी को दिखाया जाये, वीर सावरकर और उनके जैसे अनेक गुमनाम वीर जिन्होने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना जीवन अपने प्राण हसते हुये दे दिये, उनके बारे में पढ़ाया जाये, उन बलिदानियों पर फिल्में बनाई जाये, सभी माध्यमों से उनकी कहानी को देश भर में पहुंचाया जाये।

फिल्म आपको पसंद आए ना आए, विचारों से आप सहमत हो या ना हों वो आपकी मर्जी है परंतु देश का इतिहास जानने के लिए कम से कम ऐसी फिल्में अवश्य देखें।

क्यूंकि सभी फिल्में सिर्फ पॉपकॉर्न खाकर टाइमपास करने के लिए नहीं होती।  

 

                                            भारत माता की जय

 

टिप्पणी/समीक्षा


आपकी रेटिंग

blank-star-rating

लेफ़्ट मेन्यु