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सफर की मंजिल

#सफर की मंजिल#


रघुनाथ जैसे ही स्लिपरकोच में चढे ,उन्होंने देखा, डिब्बे मे काफी भीड थी।अपनी बर्थ नंबर 24 देखी उस पर पहले से ही दो सज्जन  बैठे थे। अपनी छोटी बैग रख उन्होंने उन दोनों पर नजर डाली ।

“आप की सीट है क्या ?बैठो बैठो” कहते हुए वे दोनों थोड़े-थोड़े  सरक कर बैठ गए ।

रघुनाथ को मन ही मन कोफ्त हो रही थी । बीते कई सालों से स्लीपर कोच में बैठे नहीं।  वैसे तो कई साल गुजर गए वह रेलगाड़ी में ही बैठे नहीं अक्सर मीटिंग होती तो हवाई जहाज से या कभी टैक्सी से जाते । 

इतनी घिचपिच में सफर ?उन्होंने कल्पना ही नहीं की थी पर ,अब यह उनका अपना फैसला था ।

उन्होंने आसपास नजर डाली, सामने के बर्थ पर एक स्त्री, दो बच्चे और एक पुरुष। उपर बर्थ पर दो पुरुष, साइड लोअर पर दो पुरुष, दो बच्चे और एक स्त्री। पूरा स्लीपर कोच भरा था।

अभी-अभी छठ पूजा से लौट कर यात्री पटना से मुंबई वापस जा रहे थे।

ट्रेन के शुरू होते ही बच्चे खिड़की के पास बैठने के लिए लड़ने लगे तो उन्हें लगा वह अपना बचपन देख रहे हैं, जब गाड़ी में बैठते समय खिड़की के पास बैठने के लिए वे लड़ बैठते थे भैया अक्सर उन्हें बुद्धू बनाते थे ।

“देख सुरंग आयेगी, घुप्प अंधेरे में एक डरावना हाथ आकर तुझे पकड़ लेगा। वे यानी रघ्घू, डर जाते और अम्मा कि गोद में बैठ जाते।

‘तुम एकदम में बकलोल हो’ बापू कहते ।

तभी’ ए  पानी कि बाटल,कुरकुरे,चीप्स वाला’ बेचने वाले कि आवाज से वे वर्तमान में लौटआये।  खानेपीने की चीजें देखकर बच्चे खरीदने की जिद करने लगे। “भौजी इनका भूख लगे हैं कुछ निकालो झोले में से।” पास वाले सज्जन ने कहा।

“ अम्मा हमको चिप्स खरीदने हैं “बच्चे रंग-बिरंगे झालरों को देखकर मचलने लगे। भौजी ने आदमी की तरफ देखा। उसने एक-एक पैकेट बच्चों को पकड़ा दिया। तभी भौजी ने झोले में से ठेकुआ निकालकर बच्चों को दिखाया तो उन्होंने उसे खाने से मना कर दिया “अब हम ई  नहीं खाए बोर हो गये खा कर।”

वे चिप्स खाने में मस्त हो गए। 


“ढेर चनसगर(होशियार) बने हो “कहते हुए पास वाले पुरुष ने ठेकुआ ले लिया और रघुनाथ की तरफ बढ़ाते हुए कहा” लो जी आप भी चख्खो।”


‘ठेकुआ’-- न चाहते हुए भी रघुनाथ का हाथ बढ़ गया। वे उसके स्वाद में उसके हर टुकड़े के साथ उसकी यादों में खो गए।

 चाची,ताई ,अम्मा बाबा, चाचा, बडके भाई कितना तो बड़ा परिवार था उनका ।

छठ पूजा बड़ा पर्व होता था। घर में चार दिन धूमधाम रहती थी। गाना बजाना  होता,पूजा मे‌ ईख, बेर सुपा मे  लेकर घाटों पर भीड लगी रहती ।

चार दिन लौकी भात ,गुड़ की खीर और ठेकुआ  बनता, ठेकुआ वो तो उनका परम प्रिय था ।दो चार् ठो तो वह यूं ही खा जाते।

पर रिश्तो की कड़वाहट ने ठेकुओं की सारी मिठास को ही खत्म कर दिया।


 बापू अपने परिवार को लेकर मुंबई आ गए ,और शुरू हो गई पैसे कमाने की जद्दोजहद।

छोटी उम्र में ही पैसे का महत्व पता चला तो रघु ने वह सारे पैंतरे सीख लिए, जो कमाने के लिए जरूरी थे। रघु से रघु भैया और फिर रघु सेठ बनते देर नहीं लगी।


ट्रेन अचानक रुक गई, लगता है कोई फास्ट ट्रेन  की क्रासिंग  है ।साथ वाले ट्रेन में से उतर कर देखने लगे एक गाड़ी धड़ धड़ाते हुए निकल गई रघुनाथ जी की आंखों के सामने से  उनका बीता समय भी वैसे ही   गुजरता गया। 

पैसा तो खूब कमाया,उल्टे सीधे धंधे किये पर सुख नहीं मिला रिश्तो की सारी मिठास पैसा निगल गया। अपनो से भी दूर होते गए। पत्नी  ,बच्चे ज्यादा ही चनसगर निकले, उन्हें लूटने में लगे तो मन कड़वा हो गया धीरे-धीरे मन उचटने लगा।


“भैया बंबई मे कितना बडा घर होवे?  सामने बैठे एक ने दूसरे से पूछा “

“ दुई कमरा का है, तुम चिंता मत करो रहो जितना मन करे ।और हां बंबई भी घूम लेना,

काम तो मिल ही जाएगा कुछ न कुछ, तो धीरे धीरे मन लग जाएगा।”

शायद दोनों भाई है रघुनाथ ने सोचा,अपने से छोटे कि भी चिंता है।

दो कमरे में आठ दस जन प्रेम भाव से रह सकते हैं? तभी इस स्लीपर कोच में ये लोग सानंद यात्रा कर रहे हैं । रघुनाथ का इतना बड़ा बंगला है पर मजाल है कोई मेहमान एक दिन रह ले उनकी पत्नी को इस तरह के लोग देहाती लगते और रघुनाथ भी ज्यादा आग्रह नहीं करते।

काश वे भी उनके अपने चचेरे भाईयों से मिलजुल कर रहते तो –


दोपहर में खाना आर्डर लेने वाले ने खाना ला कर‌ दिया। सामने वालो ने अपने झोले में से खाना निकाला। उस औरत ने दोनों पुरुषों को खाना दिया तो उन्होंने  रघुनाथ को कहा”आईये हम लोगों के साथ आप भी “.

 शुरुआत में   होने वाला संकोच उनके सानुग्रह से दूर हुआ तब रघुनाथ ने अपनी थाली उनके साथ शेयर की ।कितने दिनों बाद आज भोजन में खूब स्वाद आया उन्हें।  उनके घर में तो कई साल हो गए उन्होंने सपरिवार भोजन किए हुए।


भोजन करते समय सामने बैठे सज्जन का फोन बजा”हां भैया जगह ठीक ठाक मिल गई, अभी खाना ही खाएं है भौजी के हाथ का स्वाद तो भुलेही ना हम।

 और हां भैया भौजी से कहना हम नाराज नाही हे आप बडी है ग़लती पर कान उमेठने में का संकोच? ये तो आप लोगों का प्यार है तभी तो हम दौड़े चले आते हैं।

रघुनाथ सब सुनदेख रहे थे। 

और आज इस ट्रेन में बैठे हैं सहयात्री परिवार में जब प्रेम भाव देखा तो लगा, इस संपत्ति के आगे उनका बैंक बैलेंस खाली है अपना सारा पैसा व्यर्थ लगने लगा तो मन पर फिर से बोझ चढ़ने लगा ।

एक बार अपने पुश्तैनी  घर , और परिवार देखने , मिलने कि इच्छा से वे गांव गए तो पर ,उन्हें कोई पहचान नहीं मिली । 

अब लगता है घर जाकर मिल आना चाहिए था, क्या होता थोड़े नाराज होते ,तो भी थे तो अपने ही  पर अब सोच कर क्या फायदा। छठ का त्योहार  भी सुना सुना लगा,मनऔर उदास हो गया और वह वापस मुंबई लौट चले।

जैसे-जैसे शाम घिरने लगी उदासी की परछाई और लंबी होती गई ।सभी यात्री  सोने की तैयारी करने लगे। कुछ ही देर में खर्राटों की आवाज गुंजने लगी ,पर रघुनाथ की आंखों में नींद कहां वे  वह उठकर बैठ गये। कौनसा स्टेशन है शायद  सुबह तक   मुंबई आ जाएगा। जाकर भी क्या करूंगा  वही  काम काम,पैसे के पीछे भागना!उन्होंने सोचाअब बहुत हो गया। अब बीता हुआ वापस नहीं आयेगा, वही अकेलापन।इस अकेलेपन से मन घबराने लगा, नहीं जीना है  मन पर अवसाद का धुआं बढता गया,जीवन का सफर यही समाप्त करने की इच्छा फिर बलवती होने लगी तो वह उठकर डिब्बे के दरवाजे तक पहुंचे, जेब में हाथ डाला सोचा सिम निकाल कर फेंक दू  पहचान मिटा दू और कूद जाऊं।

 पर तभी कान फोडू धमाके की आवाज आयीऔर लगा जैसे धरती डोल गई। रघुनाथ धडाम से फर्श पर गिर पड़े।

आंखें खुली तो कुछ देर तक तो कुछ समझ में ही नहीं आए जिंदा है या –

आसपास लाशें पड़ी थी, कराहने कि आवाज कानों में पड़ रही थी,कुछ समझ में नहीं आरहा था सिर भन्ना रहा था, उन्होंने उठने की कोशिश की तो पैर में से एकदम से चमक निकली।  थोड़ी देर वे  यूं ही पड़े रहे अब दिमाग ने सोचना शुरू किया !वह धमाके की आवाज? उन्होंने आसपास नजर डाली रैल के कई डब्बे एक दूसरे पर चढ़े हुए हुए थे वे पटरी से दूर पडे थे।

“हे भगवान ये क्या हो गया! “

लोगों कि बातें कानों पर पड रही थी। दो गाड़ियों की भिड़ंत मतलब उनकी गाड़ी किसी दूसरी गाड़ी से टकरा गई । वह तो मरना चाहते थे पर–

उनकी आंखों से आंसुओं का सैलाब बह उठा “हे भगवान यह तूने क्या किया उन्हें क्यों बचा लिया”? वे तो  ट्रेन से कुदकर जान देने निकले थे।


तभी एंबुलेंस सेवा वाले कर्मचारियों ने उन्हें स्ट्रेचर पर रखा और  अस्पताल मे भर्ती कर गये।


कुछ ही पलों में मंज़र बदल गया।पास बैठे हुए उनके सगे न होते हुए भी हमसफ़र थे वे दूर के सफ़र पर निकल गये।पता नहीं कौन कौन जीवित है या घायल है ।अपना गंतव्य क्यों नहीं आया? रघुनाथ फूटफूट के रो दिये।।दो दिन तक वे बिस्तर में थे मन में विचारों का बवंडर मचा था, ऊपरवाले कि पता नहीं क्या इच्छा है अब येउधार का जो जीवन उसने  दिया है उसके पीछे जरूर कोई योजना है।

ट्रेन के इस सफ़र में उन्होनेआपसी प्यार और अपनों कीपरवाह देखी तो उनके सोचने कि दिशा ही बदल दी।

पांव का जख्म तों एक दिन में ठीक हो गया पर मन पर अभी भी एक बोझ सा महसूस हो रहा था  अब अस्पताल से निकलते समय उनकी नजर बाहर बैठे यात्रियों पर पडी। साथ वाले वे दोनों बच्चे और उनके चाचा बैठे थे। रघुनाथ को देखकर बच्चे रोने लगे उनके चाचा ने भी आंसू पोंछते हुए कहा “भैया भौजी कौनो नहीं  दिखाई दे रहे सारा सामान भी खो गया यहां हमारा अपना भी कौनौ नहीं। ई दोनों को कैसे सम्हाले समझ नहीं आ रहा गांव वापस क्या मूंह लेकर जाए।”


रघुनाथ ने उसे अपने करीब ले कर उसके आंसू पोंछे। वे सोचने लगे ये उधार का जीवन ईश्वर ने उन्हें बहाल किया है ,जिंदगी की रेल का सफर  जब तक मंजिल तक नहीं पहूंचता अपनी जमा पूंजी को नेक काम में लगाये।

 यही सोच कर उन्होंने कहां “ हम हैं ना हमें अपना ही समझो हमारे साथ बंबई चलो वहां से गांव में खबर कर देंगे। 

बंबई पहुंच कर  उन्होंने पहले तो एक चेक रेल आपदा प्रबंधन को भेजा फिर उन बच्चों और उनके चाचा को उनके गांव छोड़ने की व्यवस्था की ।जाते समय उन  बच्चों के नाम पर भी कुछ पूंजी जमा कर उनके पढ़ने कि व्यवस्था की,  अपने कंपनी के एम्प्लॉइज को प्राॅफिट मे से बोनस देने का ऐलान किया।

इस तरह के अनेक काम करने पर उनके मन का बोझ कुछ कम  हुआ और लगा “

“अब जिंदगी की रेलगाड़ी को सही सिग्नल और पटरी मिली है और वो अपनी मंजिल तक बिना रुके चल देगी।”

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लेखिका—- प्रतिभा परांजपे__

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