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एक अनूठा यात्रा अनुभव

एक अनूठा यात्रा अनुभव

बारहवी का परीक्षाफल आया। मैं पास हो गई थी।
मैं बहुत खुश थी क्योंकि अब मुझे कॉलेज में जाना था। परंतु मेरी यह खुशी कुछ ज्यादा नही टिक पाई क्योंकि मेरे शहर में यानी मेहसाना में कोई इंजीनियरिंग कॉलेज नही था और मुझे इंजिनरिंग ही करनी थी।
अतः तय हुआ की मैं मेरे शहर के करीबवाले शहर, यानी पाटण में पॉलीटेक्निक में डिप्लोमा में प्रवेश लेकर डिप्लोमा करू।
प्रवेश की सारी प्रक्रिया अहमदाबाद होनी थी, हो गई और बाद में मुझे पाटण में मेकैनिकल के डिप्लोमा में प्रवेश मिल भी गया।
अब दो जून से कॉलेज शुरू होना था। मैने सोचा था की मुझे वहां हॉस्टल में रहना पड़ेगा लेकिन जब मैं पहले दिन कॉलेज के लिए निकली तब स्टेशन पर देखा तो कई कॉलेज जानेवाले बच्चे हमारी ही गाड़ी में थे।
उन्ही में एक दिखा मेरे पापा के दोस्तका लड़का, अश्विनभैया।
मैने उनसे पूछा तो उन्होंने बताया की वो भी उसी कॉलेज में है और रोज अप-डाउन करकेही कॉलेज कर रहे है।
"वाह! इसका मतलब मुझे वहां रहने की कोई जरूरत नहीं?" मैने उनसे पूछा।
"नही, बिलकुल नहीं। हम सभी रोज यहां से सुबह सात की गाड़ी से जाते है और शाम को वहां से छह बजे वापिस आते है।" उन्होंने बताया।
"हमारे पापा खुद रेलवे में होने के कारण, हमे रेलवे का विद्यार्थी पास भी मिल जाता है।" यह अतिरिक्त जानकारी दी उन्होंने।
तब मुझे कॉलेज छोड़ने साथ आए पापाने कहा,"बेटा इन लोगो के साथ ही तुम भी जा सकती हो।" फिर अश्विनभैया की तरफ देखते हुए बोले,"और कुछ जरूरत पड़े तो अश्विनभैया को बोल देना।"
यह कहकर पापा निकल लिए।
अब जहां अश्विनभैया के दूसरे अप-डाउन करने वाले मित्र बैठे थे, भैया मुझे वहां ले जाने लगे।
"देखो अनला, हम एक दूसरे को पहचानते है और मैं तुमसे बड़ा हूं इसलिए तुम मुझे भैया कहती हो वह मैं समझता हूं, पर कॉलेज में प्लीज़ मुझे सबके सामने भैया मत कहना।" अश्विन भैया मुझे धीरे से समझा रहे थे, और मैं मन ही मन हंस रही थी।
"जी अच्छा" मैने कहा, फिर हम उस डिब्बे में चढ़े जहा भैया के सारे दोस्त बैठे हुए थे।
सभी दोस्तो में लड़कों के अलावा, दो लड़कियां भी थी, एक लीना और दूसरी रूपल।
ठीक सात बजे गाड़ी रवाना हुई। जैसे ही गाड़ी रवाना हुई पांच मिनिट के अंदर इधर-उधर घूमने वाले मित्र भी आ गए।
सभी ने मुझे देखा, और उनकी निगाहे कह रही थी की ,"चलो आज नया बकरा !"
पर अश्विन भैया सतर्क थे, उन्होंने तुरंत कहा," यह मेरे पापा के दोस्त की बेटी है, अनला। इसे मेकैनिकल में प्रवेश मिला है।आज से यह भी हमारे साथ ही आना-जाना करेगी।"
वह इतनी हड़बड़ाहट में क्यों कह रहे थे मुझे तब नही पता चला ,लेकिन कुछ दिनों बाद मुझे इसका पता लगा। बात यह थी यह सारी गैंग जब कोई युवती सहयात्री होती तब उसकी मजाक मस्ती करते थे। और भैया अगर यह सब नही बोलते तो शायद मेरी बारी आ जाती।
जो भी हो, बाकी लोगों ने भी मुझे अपने गैंग की मेंबर बना लिया।
अब हम रोज सुबह निकलते और शाम को वापिस आते। इसी बीच मेरी मेरे ही क्लास में पढ़ने वाली एक और लड़की पल्लवी से भी पहचान हो गई। वह भी बीच के एक स्टेशन से अप डाउन करती थी।
हम दोनो ही मेकैनिकल से थी। हमारे स्वभाव भी एक जैसे थे, अतः हमारी मित्रता जल्द ही घनिष्ठ हो गई।
पापा ने भी अपने कार्यालय में आवेदन कर मुझे मेरा पास दिलवा दिया था। हालांकि मेरे पास प्रथम श्रेणीका पास था, पर मैं ज्यादातर भैया और उनके मित्रो के साथ द्वितीय श्रेणी में ही सफर करती। सिर्फ परीक्षाओं के दिनों में मै प्रथम श्रेणी में जाती थी।
प्रथम सेमिस्टर तो रोज के आने जाने में निकल गया।
जनवरी में दूसरा सेमिस्टर शुरू हुआ।
दूसरे सेमिस्टर के पहले दिन बहुत ही कम लोग आए थे क्योंकि भैया लोगो का परिक्षाफल अभी आया नहीं था। सिर्फ हम प्रथम वर्ष के छात्र थे।
गाड़ी आने में अभी देर थी, हम सभी प्लेटफार्म पर गाड़ी आने का इंतजार कर रहे थे। इतने में कही से एक अधेड़ हमारे पास आया और रोते हुए बोला,"मेरी बेटी को बचा लीजिए बचा लीजिए प्लीज।"
मैं तो एकदम घबरा गई।
इतने में गाड़ी आ गई।
लीना और रूपल मेरे से बड़ी थी, उन्होंने मुझे अपने पास खींचा और बोला, "चल अंदर बैठते है।" कहकर वह गाड़ी की तरफ चल दी। वह आदमी अभी भी मेरे सामने खड़ा था।
लीनाने मेरा हाथ खींचते हुए अंदर लिया।
हमारे पीछे-पीछे ही वह आदमी भी चढ़ा। मुझे अब उससे डर भी लग रहा था और उससे चिढ़ भी हो रही थी।
उसी आदमी के पीछे एक औरत, एक छोटी बच्ची को लेकर ऊपर चढ़ी।
हम जहां आकार बैठे वही वह बंदा आकर हमे फिर वही बोलने लगा।
आज हमारे साथ वाले लड़के भी नहीं थे। लीना ने एकबार उसे धुतकारा, रूपल ने भी उसे डांटा। फिर भी वह जाने को तैयार नहीं था।
हमारे साथ ही एक और सज्जन बैठे थे, उन्होंने उसे पूछा,"क्या हुआ है तुम्हारी बेटी को?"
"उसे तेज बुखार है।" वह सजल आंखोसे बोला।
"तो हम क्या कर सकते है?" उन सज्जनने फिर उससे पूछा।
"आप कुछ नही कर सकते, यह बहनजी कर सकते है।" कहते हुए उसने मेरी तरफ हाथ किया।
"मैं? मैं क्या कर सकती हूं?" अचानक मेरे मुंह से निकल गया।
"जी बहनजी। आप के पास दवाई है वह दे दो।" उसका यह बोलना मुझे हैरान कर गया क्योंकि यह सच था की मेरे बस्ते में , मैं हमेशा दो गोलियां पेरासिटामोल की रखती थी। पूरा दिन बाहर रहना होता था कभी जरूरत पड़े तो यह सोचकर वह दो गोलियां और एक इलेक्ट्रोल का पैकेट हमेशा मेरे बस्ते में रहता ही था, पर सवाल यह था की उसे कैसे यह मालूम हुआ?
मैने उसे गोलियां दे दी, उसने तुरंत एक गोली के चार टुकड़े किए और उसमें से एक टुकड़े को महीन पीस कर उस छोटी बच्ची को पिला दिया। फिर साथ में जो औरत थी उसे बोला,"देखा मैने कहा था न की कुछ न कुछ जरूर होगा। हमारे भगवान हमे निराश नहीं करेंगे।"
अब तक हमारे कंपार्टमेंट में जितने लोग थे सभी उसकी बातो में ध्यान देने लगे थे।
मेरे साथ बैठी लीनाने उस बन्देको वापस पूछा," तुम्हे कैसे पता चला की इसके पास दवाई है।"
तब उन्होंने जो बताया वह सुनकर हम सब हैरान हो गए।
उन्होंने कहा," दीदी हम आबूरोड से द्वारका जाने निकले थे। मेहसाना स्टेशन आने से पहले एक साधु हम जिस डिब्बे में बैठे थे उधर आया। बोला बेटी को लेकर द्वारका मत जाओ। तुम्हे आज पाटण जाना है, वहा एक सिदसरमाता का मंदिर है। वहा होकर आओ फिर कल द्वारका जाना, नहीतो अनर्थ हो जायेगा।" इतना बोलकर वह एक मिनिट के लिए रुके। तब आगे उनके साथ जो औरत थी वह बोलना शुरू की।
"मुझे उनकी बात अजीब लग रही थी, इसलिए मैने इनको इशारे में बोला, कहने दो इनके कहने से क्या होता है। परंतु वह बाबा बोले, मुझे पता है तुम्हे भरोसा नही है, इसलिए तुम कोशिश करोगे ही जाने की। ठीक है तुम्हारी मरजी, पर कान्हा की मरजी कुछ और है।"
बाकी कहानी सुनाने के लिए वह अधेड़ उम्र के सज्जन आगे आए बोले,"फिर उन्होंने जाते जाते बोला, कल को तुम्हे एक लड़की मदद करेगी, जिसके पास काले रंग का बस्ता होगा और उस लड़की ने ऐनक लगाई होगी। तुम्हारी दवाई उसीके पास मिलेगी।" कहकर वह वहां से निकल गए।
उन्होंने इतना कहा था फिरभी हम द्वारका जानेवाली गाड़ी में ही चढ़े। अच्छी तरह से देखकर ही चढ़े थे। गाड़ी चलने लगी और टीटी आया बोला यह गाड़ी तो अहमदाबाद जा रही है आप गलत गाड़ी में चढ़े हो, ऐसा करो अगले स्टेशन उतर कर वापिस मेहसाना चले जाओ।हमने वैसा ही किया और मेहसाना उतरकर द्वारका की गाड़ी आने का इंतजार करने लगे। गाड़ी आने के संदेश का प्रसारण हुआ, इतने में एक चोर हमारी बैग लेकर भाग गया। हम उसके पीछे पीछे दौड़े और इधर गाड़ी छूट गई।" बोलते बोलते थके हुए वह काफी असहायसे लग रहे थे।
इतने में फिर वह साथ वाली औरतने बोलना शुरू किया,"इतने में मेरा ध्यान बेटी पर गया वह जोर-जोरसे रो रही थी। उसे चूप कराने गई तो पता चला उसे बुखार था। इतने में यह पाटणवाली गाड़ी लगी। हमे उस बाबा की कही कहानी याद आई और मैंने इनको बोला की आप उस लड़की को ढूंढो जिसका वर्णन बाबा बोल रहे थे।"
"बस इसके कहते ही मैं उस बाबा के कहे वर्णनवाली लड़की को ढूंढने लगा, इस बीच बेटी का बुखार बढ़ रहा था।मुझे समझ में नही आ रही थी क्या करू? यह मेरी इकलौती बेटी है, इसको जनम देते समय इसकी मां स्वर्ग सिधार गई। घरमें सभीने इसे मनहूस कहा सिर्फ मेरी इस बहनको छोड़कर।" उस अधेड़ने उस औरत की तरफ हाथ दिखाते हुए कहा।"यह मेरी मौसेरी बहन है, इसको बच्चा नही हुआ इसलिए इसके ससुरालवालों इसे घर वापिस भेज दिया। मौसी की मृत्यु के बाद इसे मेरी मां हमारे घर ले आई। तभी से यह हमारे साथ रहती है। जब मेरी पत्नी का देहांत हुआ तब इस नवजात बच्ची को इसीने संभाला ।हम द्वारका मेरी पत्नी के फूल(अस्थियां) लेकर जा रहे थे। बच्ची को घर पर कोई संभालने को तैयार नहीं था इसलिए मैने इन दोनो को भी साथले लिया। और फिर तो सब आपको मालूम है ही।"
हम सब उनकी बाते सुनकर अचंभित थे। अचानक वह उठे, मेरे पैर छूते हुए, उन्होंने मुझसे कहा,"बहना आप मेरे लिए किसी देवी से कम नहीं हो।"
"मैं ?" मैने सकुचाते हुए कहा "नही भैया" मुझे तो पता ही नही था की मेरी यह दवाई रखने की आदत इसतरह किसीके काम आएंगी।
अबतक वह छोटी बच्ची थोड़ी ठीक हो चुकी थी। मैं, लीना और रूपल तीनों उस बच्ची को खिलाने लगे। थोड़ी देर के बाद वह औरत मुझे बच्ची को देकर बोली,"दीदी आप इसे पकड़ो, मैं बाथरूम जाकर आती हूं।"
मैने बच्ची को ले लिया, एकदम निर्मल मन और सुंदर हसमुख चेहरा लिए वह बच्ची इतनी अच्छी लग रही थी जैसे कोई देवीमां।
दस मिनिट हो गए पर वह औरत वापिस नही आई। इतने में एक स्टेशन करीब आ रहा था, वह अधेड़ उठा बोला,"मैं दीदी को देखकर आता हूं, कही स्टेशन पर वह गड़बड़ न कर दे।"
और वह बच्ची छोड़कर चला गया। इतने में स्टेशन आया। गाड़ी वहा थोड़ी देर रुकी, फिर वापिस चलने लगी, पर उन दोनो में से कोई भी नही आया। अब हमे डर लगने लगा। आजूबाजू वाले कहने लगे की शायद यह बच्ची छोड़कर भाग गए है। मुझे तो रोना आ रहा था।
"इस बच्ची का क्या करू?" मैने लीना और रूपल से पूछा। हम तीनो समझ नही पा रहे थे और धीरे धीरे यह बात पुरे डिब्बे में फैल गई।अब हर कोई हमारी नादानियो पर बाते बना रहा था ,कोई हँस रहा था, कोई हमे पुलिस में जाने की सलाह दे रहा था।
मेरा मन कह रहा था की वह अधेड़ झूठ नही बोल रहा था पर अभी तक दोनो में से कोई आया भी नही था।
अंतत: हमने निर्णय लिया की हम इस बच्ची को पाटण स्टेशनपर पुलिसको दे देंगे।
पर अभी बीच में दो स्टेशन बाकी थे। उसमें से पहला स्टेशन आया, वहा से पल्लवी गाड़ी में चढ़ी।
वह अंदर आते ही हमने उसे सारी बाते बताई। अबतक मेरी गोद में खेल रही उस बच्चिको अब पल्लवी ने लिया। वह बच्ची हमारी परेशानियों से बेखबर मुस्कुरा रही थी। हमारे साथ वाले सज्जन बार-बार हमे यह याद दिला रहे थे की हमे किसीने मूर्ख बनाया है।
देखते देखते आखिर से दूसरा स्टेशन आ गया। हमे अब विश्वास हो गया की अब वे लोग नही आयेंगे।
इतने में हांफते भागते वह भैया आए, पीछे पीछे उनकी वह बहिन भी।
"माफ करना बहन, हम भटक गए थे।" उन्होंने वापिस हमारे पैर छूते हुए कहा।
"मतलब?" मैने थोड़े गुस्से से ही पूछा।
"हमे बाबा ने कहा था की आप हमे मदद करोगे, आपने की भी पर हम इस बच्ची को छोड़कर भाग जाना चाहते थे क्योंकि मुझे भी अब यह अपशकुनी लगने लगी थी। पर ..."
"क्या पर?" गुस्से में लीना चिल्लाई।
"भैया नही बोल पाएंगे। मैं बताती हूं, मैं बाथरूम गई थी वापिस आने को थी तभी सामने से भैया आते दिखे। मैने उनसे बच्ची के बारे में पूछा। वह बोले उस अपशकुनी को छोड़ आया हूं चलो निकल लेते है। और हम आए हुए स्टेशन पर उतर पड़े। इतने में ही सामने वही बाबाजी दिखे, उन्हें देखकर भैया डरकर वापिस गाड़ी में चढ़ गए, पीछे पीछे मै भी।
हम दरवाजे पास ही खड़े थे की जैसे ही बाबाजी निकले हम उतर पड़ेंगे पर हुआ उलटा बाबाजी खड़े रहे और गाड़ी चल पड़ी। उसके बाद अगले स्टेशन पर वापिस हम उतरने को गए तो सामने बाबाजी , फिर वही हुआ। पर इसबार हमने गाड़ी चलने लगी तब भी बाबाजी को नीचे खड़ा देखा था। बिलकुल गाड़ी ने स्टेशन छोड़ा तबतक बाबाजी वही खड़े थे। इसलिए अगले स्टेशन पर हम निश्चिंत थे की यहां हम उतर पाएंगे।
लेकिन जैसे ही अगले स्टेशन हम उतरने गए फिर बाबाजी दिख गए। अब हम घबरा गए। पर इस बार बाबाजी सीधा हमारे पास आए और बोले," उस बच्ची को क्यों तकलीफ दे रहे हो जिसने तुम्हारी मदद की। और उस छोटी देवी का अपमान न करो जो तुम्हारी गोद में खेलने आई है, अगर उसका अपमान किया तो तुम कहीके नही रहोगे , सेठ रामनरेश।"
उस औरत के इतना बोलते ही भैया ने बोलना शुरू किया,"उनका यह बोलना और हम एकदम चौक गए क्योंकि उन्हें हमारा नाम कैसे पता चला? मैं दीदी की तरफ देखकर वापिस मुड़ा तो बाबाजी गायब। बस अब मुझे एक बात पता चल गई की कुछ बात तो है बाबाजी मैं । बाकी तीन स्टेशन हमने दौड़ भाग कर पूरी गाड़ी छान मारी पर बाबाजी नही दिखे, अंत में हम उनकी कही बाते दिल में रख कर यहां आ गए।"
अब चौंकने की बारी हमारी थी, क्योंकि हम क्या समझ रहे थे और कहानी क्या थी।
मैने पल्लवी से लेकर बच्ची उनको सौंपी।
और अचानक मेरी और पल्लवी की नजर खिड़की के बाहर गई, वहांपर एक बाबाजी दिख रहे थे। आश्चर्य यह था की गाड़ी चल रही थी और वह बाबाजी भी गाड़ी के बाहर दिख रहे थे।हम दोनों ने हाथ से खिड़की की तरफ इशारा करते हुए बोले, "बाबाजी"।
दूसरे लोगोका ध्यान खिड़की पर गया। पर उन्हें वहा कोई बाबाजी नही दिखा।और जब हमने मुड़कर अंदर की तरफ देखा तो इधर बच्ची सहित वह दोनो भी गायब थे। मैने और मेरी सहेलियों ने पूरा डिब्बा छान मारा पर हमे कोई नही दिखा। गाड़ी कही रुकी भी नही थी इसलिए वे लोग उतर गए होंगे यह कहना भी गलत होता।
हम सोच में डूबे हुए पाटण स्टेशन आते ही उतर गए।
मैं कॉलेज गई और वहा कुछ नोट्स लेने के लिए बस्ते में हाथ डाला, और देखा तो मैंने जो गोली उसे दी थी वह भी मेरे बस्तेमें थी।
जब यह सब हमने अपने रोज जानेआने वाले समूह में बोली तो अश्विन भैयाने बताया की ऐसा ही अनुभव एकबार उनके साथ भी हो चुका है।
इसके बाद से हम सभीने तय किया की कुछ भी हो, यात्रामें हम किसी बच्चेकी जिम्मेदारी नही लेंगे।
अगले दो साल हमने फिर इस तरह का कोई अनुभव नहीं हुआ।
©®अनला बापट

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