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महिला दिवस पर

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। इस दिन अनेक माध्यमों से आज की नारी के बारे में, महिला सशक्तिकरण के बारे में चर्चाएँ होती हैं, इक्कीसवी सदी की नारी कैसे सक्षम और सबल बन गयी है ये बताया जाता है, साथ ही ये जरूर कहा जाता है कि भारत में नारी को सदियों तक अपने अस्तित्व के लिए लड़ना पड़ा है, एक बड़ा लंबा समय संघर्ष करने के बाद आज स्त्री इस मुकाम पर पहुँचीं है। यह कुछ हद तक सच भी है पर जो लोग यह कहते हैं की भारत में हमेशा से ही स्त्रियॉं लाचार रही हैं और उनका समाज में कोई स्थान नहीं रहा ये बात उतनी सत्य नहीं है।क्यूंकि जब भी मै भारत का इतिहास पढ़ने का और जानने का प्रयत्न करती हूँ तो मुझे कुछ और ही नजर आता है। आम बातचीत में सभी कितने आराम से कह देते हैं कि “ये कोई अमेरिका थोड़ी है कि यहाँ औरत कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है!” पर इतिहास के पन्नों में झांक कर देखें तो हमें समझ आता है कि हमारी स्त्रियाँ तो पुरातन काल से ही  स्वतंत्र और समृद्ध हैं। इसलिए आज मै आप सबसे कल कि बात करूंगी “आने वाला कल नहीं बीता हुआ कल” जिस कल में जाने पर हम और आप महिला दिवस को और भी अच्छे से मना पाएंगे।  

भारत देश बड़ा ही निराला है यहाँ हमें हर विभिन्नता और असमानता में भी एकता और समानता दिखाई पड़ती है। और भारतीय इतिहास जितना खुशहाल और समृद्ध था इतना शायद ही किसी और देश का इतिहास होगा....

इक्कीसवी सदी की बात तो सभी करते हैं। पर आइये आज हम कई सौ साल पुरानी सदी में जाकर देखते हैं की वहाँ स्त्री का प्रभाव कितना था।

चलते हैं वैदिक और पौराणिक काल में

इस काल में महिलाएं उच्च शिक्षित, वेदों और पुराणों में पारंगत हुआ करती थी। उन्हे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता थी। बात चाहे बड़े घर की महिलाओं की हो या फिर एक साधारण स्त्री की, उस काल में सभी को महत्व था। शिक्षण, व्यवसाय तथा कला हर जगह स्त्रियॉं सहभागी होती थी। धार्मिक क्रियाओं मे ऋषिकाओं का अत्यंत महत्व था। उस समय उन्हे पुरोहितों व ऋषियों के समान दर्जा प्राप्त था। स्त्रियों को सामाजिक प्रतिष्ठा व सम्मान प्राप्त था। कुछ नाम बताना चाहूंगी “गार्गी” “मैत्री” “घोषा” “अपाला” “लोपामुद्रा” जैसी अनेक ऋषिकाएँ जो वेद, और शास्त्रों की ज्ञाता थी इन्होने ना केवल अनेक सूक्तों और ग्रन्थों की रचना की साथ ही अपने आश्रमों में अनेक महिलाओं को शिक्षित भी किया।

पौराणिक काल की कहानियाँ पढ़ते हैं तो उसमे एक कहानी आती है की कैसे महादेव से विवाह करने का हठ लेकर माता पार्वती उपवास करने बैठ गयी थी। घर से दूर एक निर्जन स्थान पर चली गयी थी और जब स्वयं महादेव और हिमालय विवाह के लिए तैयार हुये तब जाकर वो घर लौटी। अपने प्रेम का चयन उन्होने स्वयं किया और अंत में उसे हासिल भी किया।

भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मी उनसे नाराज होकर समुद्र में जाकर बैठ गयी थी और जब समुद्र मंथन हुआ तब जाकर उन्हे ससम्मान बाहर लाया गया।

थोड़ा और आगे चलें तो हमें एक नाम मिलता है “सावित्री’ जिसने अपने पति के प्राण यमराज से लौटा लिए थे। यह कथा बड़ी ही प्रसिद्ध है। आज के समय में इस पर यकीन करना संभव नहीं पर सावित्री और यमराज के मध्य जो वार्तालाप हुआ था वो किसी शास्त्रार्थ से कम नहीं था और आपको प्राण लौटाने वाली घटना पर विश्वास ना करना हो तो वो आपकी मर्जी है परंतु जब आप इन दोनों का वार्तालाप पढ़ेंगे तब आपको यकीन हो जाएगा की पुराने समय की महिला कितनी शिक्षित, ज्ञानी और सक्षम थी। जिसने अपने तर्कों से मृत्यु के देवता को भी पराजित कर दिया था।    

हमारे इतिहास में महिलाओं का एक ऐसा दर्जा ऐसा स्थान रहा है जिस पर हमें ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को गर्व होना चाहिए।

अगले कालखंड को देखे तो रामायण ग्रंथ में ऐसी अनेक शक्तिशाली स्त्रियों का वर्णन मिलता है।

“सीता” “मंदोदरी” “तारा” “सुलोचना” “उर्मिला” और भी अनेक ऐसी स्त्रियाँ हुई जिन्होने अपनी उपस्थिती से सभी को यह बता दिया कि स्त्रियों का समाज में और पुरुष के जीवन में क्या स्थान होता है।

वेदवती नाम कि एक ऋषिका के तप में तो इतना बल था कि उनके दिये हुये श्राप के फलस्वरूप ही राक्षसराज रावण अपने अंत के समीप पहुंचा था।

यहाँ एक घटना का वर्णन अवश्य ही करूंगी “जब भगवान राम माता सीता और लक्ष्मण वनवास के लिए जा रहे होते हैं तब अयोध्या के धर्मगुरु व सलाहकार मुनि वशिष्ठ कहते हैं कि यदि राम अपने वचनों को पूर्ण करने जा रहा है तो देवी सीता उनकी अनुपस्थिती में यहाँ रहकर राज्य का भार संभाले।

क्यूंकी देवी सीता में एक राजा के सभी गुण हैं, धर्म, शास्त्र ,कला, अर्थ, वाणिज्य , हर विषय में वो प्रवीण हैं।

युद्ध नीति, शस्त्र का अभ्यास, आखेट, सेना का नेतृत्व सभी में वो निपुण है।

अब बताइये कि हम आज किसी महिला को मुख्यमंत्री या सेनानायक के पद पर देख कर गर्व महसूस करते हैं परंतु भारतीय नारी तो आज से पाँच हज़ार साल पहले भी उतनी ही सक्षम थी। कौन कह सकता है कि भारत में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर का सम्मान और अधिकार नहीं मिलता था।

 

इस घटना के बाद हम बढ़ते हैं महाभारत काल की ओर

इस काल में हम देखें तो स्त्रियाँ और भी शक्तिशाली दिखाई पड़ती हैं। “सत्यवती” “अम्बा” “कुंती” “गांधारी”

“द्रौपदी” “रुक्मिणी” “सुभद्रा” “हिडिंबा” जैसी अनेक स्त्रियों कि कहानियाँ मिलती हैं जिन्होने अपने सामने आयी परिस्थिति का सामना किया, अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीना, अपना निर्णय स्वयं लेना, चुनाव करने और अपने विचार प्रकट करने कि स्वतन्त्रता इन्हे प्राप्त थी। जहां द्रौपदी नें अपने स्वयंवर में कर्ण और दुर्योधन का वरण करने से स्पष्ट मना कर दिया था, वहीं रुक्मिणी ने स्वयंवर में कृष्ण को आमंत्रित ना करने पर घर से भाग कर मंदिर में विवाह कर लिया था। और सुभद्रा ने तो संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी अर्जुन को रथ में बैठा कर पलायन तक कर लिया था। अपनी इच्छा के विरुद्ध जीवन यापन इन सभी को मंजूर नहीं था।

इन सभी स्त्रियों का उदाहरण देने कि आज इसलिए आवश्यकता पड़ी क्यूंकि हर बार हमारे देश के इतिहास पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है, यहाँ असमानता है भेदभाव है स्त्री पुरुषों में जान बूझकर भेद किया जाता है स्त्रियों को बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता...   यही बातें सुनाई पड़ती हैं। कुछ हद तक ये सही भी हो सकता है परंतु जब इतिहास के कुछ गलत उदाहरण प्रस्तुत करके यह मुद्दा उठाया जाता है कि भारत में तो यही होता आया है। तब बड़ा बुरा लगता है। अनेक ऐसी बातें और ऐसे लोग हमारे इतिहास में, वेदों में, पुराणों में मिलते हैं जो आपकी इस भ्रांति को दूर कर देंगे बस जानने कि और पढ़ने की आवश्यकता है।

स्त्रियों को संघर्ष करते मैंने भी देखा है और देखती ही आ रही हूँ, हर दिन एक नयी लड़ाई लड़ते देखा है।

परंतु भारत में ऐसा ही होता आया है इस वाक्य से मै असहमत हूँ क्यूंकि ये भारत है जहां “जीजामाता” शिवबा को गढ़ती है और रानी लक्ष्मीबाई अपने राज्य के लिए अपनी जान दे देती है। समय के बदलने के कारण और भारत पर अनेक आक्रमण होने के कारण स्त्रियों के जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ा। आक्रांताओं ने इस देश में घुसकर यहाँ कि सबसे मूल्यवान संस्कृति को ही नष्ट कर दिया और हमारी स्त्रियों को घर में, घूँघट में रहने पर मजबूर कर दिया।

खैर...विषय बहुत बड़ा है और गहरा भी....इस पर किसी और दिन बात करेंगे,  

इस सबमे एक और विषय आता है कि क्या हमें केवल स्त्रियों के शोषण के बारे में ही बात करना चाहिए? क्या स्त्री विमर्श का हर मुद्दा केवल त्रास और पीड़ा से भरा हुआ होना चाहिए? और क्या हर बार एक पुरुष चाहिए जिसके सर पर हम स्त्रियों कि इस परिस्थिति का दोष मढ़ सकें?

मुझे लगता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए, बीच के कालखंड में जब स्त्रियों पर अत्याचार हुये, उन्हे मजबूर और लाचार होकर इच्छा के विरुद्ध जीवन जीना पड़ा और इस स्थिति से बाहर आने में भी कई सदियाँ बीत गयी, उस समय भी इन स्त्रियों नें अपने धैर्य, सहनशीलता और बुध्दी से हर समस्या को खत्म किया, समय-समय पर पुरुषों को संबल दिया और उन्हे शत्रु से जीतने का हौसला दिया।  

इस कालखंड में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति बदली और उन पर पाबन्दियाँ लगायी गयी, अनेक बार दुर्व्यवहार किया गया और प्रताड़ना दी गयी पर उस वक़्त कि बातें ना करके हम उस उन्नत इतिहास की बातें करें जो सुवर्ण अक्षरों में लिखने लायक है। बुरे लोगों को याद करने के बजाय हम उन अच्छे लोगों को याद करें जिन्होने हर स्थिति में स्त्रियों के बारे में उनकी उन्नति के बारे में बात की, उनका साथ दिया।

“जीजामाता” “रानी अवन्तीबाई” “महारानी लक्ष्मीबाई” “रानी दुर्गावती” “रानी पद्मिनी” “रानी संयोगिता” “काशीबाई” “पार्वतीबाई” “अहिल्याबाई” और ऐसे हजारों नाम हमें भारतवर्ष में सुनने मिलते हैं। ये सभी नाम अपने आप में पूर्ण, और सक्षम महिलाओं के हैं। अपने इस गर्वित और उन्नत इतिहास को याद करके हमें आगे बढ़ना चाहिए और आने वाली पीढ़ी को यह बताना और समझाना चाहिए कि भारत में स्त्री को देवी ही माना जाता था क्यूंकि हर बार राम का नाम लेने पर सीता का और शिव का नाम लेने पर पार्वती का नाम आ ही जाता है।

तो अब से महिला दिवस पर इतिहास कि उन समस्त माताओं, रानियों, और वीरांगनाओं को अवश्य याद करें, उनके बारे में पढ़ें, सही जानकारी हासिल करें और कृपया करके “भारत में तो ऐसा ही होता आया है” ऐसे वाक्य ना बोलें।

 

सभी को महिला दिवस कि हार्दिक शुभकामनाएँ         

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