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प्रारंभ


अर्पण

इस उपन्यास को मैं अर्पण करता हूं मेरे प्रिय सभी पाठकों को जिन्होंने मुझ पर भरोसा करते हुए मुझे सही रूप में जिंदा रखा।


         आभार

लेखक मित्र आबीद भाई खनुसिया का बहुत-बहुत धन्यवाद करना चाहूंगा। उनके अपनत्व ने हमेंशा मेरी उर्जा को बरकरार रखा है। 



मिशन में

मौत जब बिल्कुल निकट थी, तभी दिमाग में एक विचार कौंधा। मैं अगर मरने के बाद भी हजारों लोगों में जिंदा रह सकूं तो?

संभावनाओं को परखा गया। ठीक समुद्र मंथन की तरह।

एक न्यूज़ चैनल के जरिए आकस्मिक इस विचार को वेग मिला। दिमाग कुछ हद तक शांत हो गया। ठंडा हो गया। उसने प्रकृति पर अपना प्रभुत्व महसूस किया। वह प्रकृति के कण-कण में व्याप्त था। सिर्फ खुद ही नहीं बल्कि उसके दोनों दोस्त और गुरुदेव की दिव्य शक्ति से बिल्ली जैसे सामान्य प्राणी से एक सुंदरी का देह धारण करने वाली दोनों कन्याएँ भी अपनी चमत्कारिक शक्तियों के साथ मानव समूह में समा चुकी थी।

डर उसे दुनिया का नहीं था ---बल्कि अपने ही दोस्तों का था। जबकि विश्व पूरा एक जंतु के समूह से ज्यादा उसके लिए कुछ नहीं था—- सिर्फ तृषा तृप्ति का जरिया मात्र था।

मन के अंदर उठने वाला दावानल अब शांत हो चुका था। सुपर नेचुरल पावर की एक बेलगाम जिंदगी आकार ले चुकी थी।

शायद खुद की हत्या करने के बाद साथियों को मालूम नहीं होगा कि वह किसी शरीर में धड़क रहा था। दिमाग में एक सॉलिड निर्धार की उसने गांठ बांध ली। ह्रदय को चकनाचूर करने वाला अपने ही घर का दृश्य उसकी आँखों में छा गया। किसी शराबी की आँखों की तरह सुर्ख हो चुकी अपनी आँखों पर उसने पलकों का पर्दा डाल दिया।  उसके चेहरे पर अब सिर्फ क्रूरता नजर आ रही थी। 

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एक नए परिवेश में आये है कुछ यादगार किरदार।

मेरा यह प्रयोग सफल रहा तो अपनी मेहनत सफल मानुंगा। कहानी के बारे में कुछ बताकर आपका मजा किरकिरा नही करना चाहता। चलिये एक खौफ़नाक और रोंमांचक सफर में मेरे साथ।

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