जन्म: 4 सितम्बर, 1966 (कानपुर)
शिक्षा: परास्नातक
व्यवसाय: पत्रकारिता (वर्ष 1986 से)। 'दैनिक भास्कर', 'स्वतंत्र भारत' (कानपुर/लखनऊ) आदि में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य।
विधाएं: नई कविता, गीत, गजल, दोहे, मुक्तक, हाइकु, कहानी, व्यंग्य, निबंध, रिपोर्ताज और बाल साहित्य। रचनाएं देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं,प्रमुख अंतरजाल पत्रिकाओं में प्रकाशित। दूरदर्शन/आकाशवाणी से प्रसारण भी।
प्रकाशित कृतियां:
-'सरहदें' (काव्य संग्रह)
-'पीढ़ी का दर्द' (काव्य संग्रह)
-'ईष्र्या' (लघुकथा संग्रह)
-'शेरनी मां' (बाल कथा संग्रह)
--‘कविता अनवरत-1’.‘कविता अनवरत-2’,कविता अभिराम-1, समकालीन कविता-2, आधुनिक दोहा, लघुकथा अनवरत ‘कानपुर के समकालीन कवि’ सहित कई संकलनों में रचनाएँ संकलित।
-रचनाओं का कई देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद।
-विशेष: काव्यकृति 'पीढ़ी का दर्द' के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत।
-साहित्य/पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा 'गणेश शंकर विद्यार्थी अतिविशिष्ट सम्मान'।
-कई अन्य संस्थाओं से भी सम्मानित।
संपादन: 'काव्ययुग' ई-पत्रिका
संप्रति: 'आज' (हिन्दी दैनिक), कानपुर में कार्यरत।
मोबाइल: 91-9140638474
ई-मेल:subodhsrivastava85@yahoo.in
Book Summary
आम आदमी के जीवन से जुड़ी लघुकथाएँ - हरभजन सिंह मेहरोत्रा
आज की लघुकथाओं में वो बात नहीं रह गई है जैसी पहले हुआ करतीं थी। यानि कि रहीम के दोहे देखन में छोटे लगे घाव करें गम्भीर को चरितार्थ करती दिखतीं थीं। लघुकथाओं का स्वरुप गागर में सागर समा जाए, ऐसा होना चाहिए। चुटीलापन और चौंकाने जैसा स्वाभाव होना चाहिए। कहानी का परिवेश उसके थीम के अनुरुप हो इसका ध्यान जरुर रखना चाहिए।
मैं आज बात कर रहा हूं श्री सुबोध श्रीवास्तव जी की लघुकथाओं की। सुबोध जी एक बहुत अच्छे संवेदनशील कवि हैं। गद्य में उनके लेखन के लिए यह प्लस प्वाइंट है। लघुकथाओं में उन्होंने इसका भरपूर फायदा भी उठाया है। सच कहा जाये कवित्त की भाषा मे रचित उनकी लघुकथाओं में चार चांद लगने जैसी बात हो गई है। मुझे लगता है कविताओं के साथ-साथ वे कहानियों में भी ध्यान दें तो नि:सन्देह बहुत ही खूबसूरत कहानियाँ इनकी कलम से निकल कर बाहर आयेंगी। खैर, फिलहाल मैं बात कर रहा हूं इनकी लघुकथाओं की। मुझे बड़ा अच्छा लगा उनकी लघुकथाएं पढ़ कर। सुबोध जी ने पूरी सतर्कता बरतते हुए लघुकथाओं में गागर में सागर वाली कहावत को सच साबित कर दिया है।
इस संग्रह की लघुकथाओं में सबसे पहले जो रचना आती है उसका नाम है 'परम्परा', जो बेहद कसी हुई और कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने में सक्षम है। सिर्फ यही लघुकथा नहीं, बल्कि संग्रह की बाकी रचनाओं में यह बात साफ दीखती है।
'परम्परा' में एक मध्यम वर्ग के परिवार की, जमाने के हिसाब से तमाम परिवारों में घटने वाली एक आम घटना है कि त्रिपाठी जी की लड़की विजातिये लड़के के प्रेम में पड़ जाती है। इतना ही नहीं, बात शादी तक पहुंच जाती है। लड़की न सिर्फ सयानी बल्कि समझदार है। वह अपने घर में, उस लड़के के साथ विवाह करने के लिये अपनी बात रखती है। जिसकी वजह से घर पर कोहराम मच जाता है लेकिन पंडिताईन (लड़की की मां) अपनी सूझ-बूझ से सब कुछ सम्भाल लेती है। परिणामस्वरुप घर में खुशहाली का वातावरण बन जाता है और बच्चों की बात भी रह जाती है।
अगली लघुकथा 'गन्दगी' पाठकों के सामने आती है। किशन घर का बड़ा लड़का जो पिता के साथ हुई अनबन से घर छोड़ कर गया तो वापिस मुड़ कर नहीं देखा। लेकिन अपनी मंझली बहन की शादी में दस साल बाद घर लौटा तो मसाला कूट रही मां बरसों से बिछड़े लड़के को देख उससे लिपट जाती है लेकिन मां के मसाला भरे हाथों से गन्दी हो रही अपने पति की कमीज देख बहू आखिर टोक देती है, "अम्मा आपके हाथ गन्दे हैं। इनकी कमीज पर दाग लग रहे हैं।" यह सुन मां अवाक रह जाती है। देखने वाली बात यह है कि बहू की ओछी मानसिकता और एक मां की अपने बच्चे के लिये तड़प को लेखक ने कैसे दो एक पंक्तियों में व्यक्त करके लघुकथा को प्रभावी बना दिया है।
दंगे की विभीषका में झुलस रही मानवता के बीच इंसानियत का संदेश देती लघुकथा 'दंगा' अपने मंतव्य मे खरी उतरती दिखती है। झूठ बोलना पाप है। बच्चे के मां-बाप बेटे के झूठ बोलने पर उसे नसीहत देते हैं लेकिन जब अपने ऊपर बात आती है और उन्हें भी झूठ का सहारा लेना पड़ता है तो अबोध बच्चा सोचने पर मजबूर हो जाता है। सही और गलत पर फर्क नहीं कर पाता। सच बात तो यह है कि अभिभावकों और बच्चों के माता-पिताओं के लिए यह लघुकथा 'पाप' एक सबक है।
कभी-कभी आदमी कितना खुदगर्ज हो जाता है। बल्कि उसकी सोच इतनी पंगु हो जाती है कि अपने किये गये गलत कृत्य को भी सही करार देता है। यह बात 'सन्तुष्टि' नामक रचना से बहुत अच्छे से जाहिर होती है। एक नौकरी पेशा आदमी किस तरह से महीने के आखिरी दिनों में घर-गृहस्थी के खर्चे में कटौती करता है। जरा सा कोई अतिरिक्त खर्चा आ जाता है तो उसका पूरा घर डांवाडोल हो जाता है। इतना ही नहीं कोई भिखारी उसके सामने आ जाता है तो उसे वह नसीहतों का पुलन्दा पकड़ा कर भगा देता है। ठीक इसके विपरीत अपने बास को खुश करने के लिऐ उसे होटेल में अच्छा -खासा नाश्ता करा देता है।
अक्सर भिखारी छदम् वेश में भीख मांगने का कारोबार चलाते हैं। भीख मांगने को यह लोग रोजी या धन्धा ही कहते हैं। मैं बात कर रहा हूं लघुकथा 'भिखारी' की जिसमे रेलगाडी मे रोज के चलने वाले नौकरीपेशा मुसाफिरों में से एक आदमी अंधे भिखारी को पांच का नोट देता है। पर वही भिखारी नोट को देख उस आदमी पर भड़क जाता है क्योंकि नोट फटा रहता है। स्वांग रचाए इस तरह के भिखारियों ने असली भिखारियों के धन्धे को भी चौपट कर डाला है। लेखक ने बड़ी सहजता से प्रवाहमयी शैली में यह लघुकथा लिखी है।
'पागल' अत्यंत मार्मिक रचना है। भूख, प्यास से तड़पता व्यक्ति अपने मददगार को ही पागल कहता है। भूख से उसकी पीडा असहृनीय हो गई थी लेकिन कोई उसकी मदद करने को आगे नहीं आया। और जिसने मदद की वह कोई पागल ही तो होगा। अगर कोई सहायता नहीं कर रहा तो उसने क्यों मदद के लिये हाथ बढ़ाया। मैं समझता हूं वो उस आदमी की वेदना की इन्तहा थी कि उसे पागल कहने के लिए मजबूर हो गया।
अंधे के आगे रोना अपने दीदे फोड़ना। दरोगा को चाय पिलाने के अपराध में जब उस छोटे से बबुआ को दरोगा ने यह कहकर पीट दिया कि उसने चाय ठीक नहीं बनायी और उसके मालिक ने भी झिड़का तो उसे छोटी सी उम्र में समझ आ गया कि उसकी गलती नहीं भी होते हुए कहां पर थी। 'समझ' में लेखक ने बड़ी खूबसूरती से समझदारी को बयान किया है। 'राहत' जुल्म सहने और संघर्षरत् रहने की मार्मिक कहानी है।
'ईर्ष्या' एक ऐसे तबके की कहानी बयान करती है जो जानवरों सा जीवनयापन करते दूसरों की जूठन से अपनी भूख का निवारण करते हैं। वक्त पर महत्व तो एक चींटी का भी आंका जाता है। ठीक ऐसी ही लघुकथा है 'महत्व'। कानूनगार ही कानून तोड़ते हैं फिर आम जनता को शय तो मिलेगी। बड़े अच्छे ढंग से यह बात लेखक ने 'कानून' में समझाने का जतन किया है।
'सहुलियत' लघुकथा का नाम अगर आदत होता तो ज्यादा अच्छा रहता। खैर, यह लेखक की अपनी सोच है। कुछ ढीठ लोग ऐसे भी होते हैं जो सहुलियतें मिलने पर और सिर चढ़ जाते हैं ऐसे लोगों को ही मुँह लगा कहा जाता है। सारे रिश्ते अर्थ पर टिके हैं पैसों की कोई कमी नहीं तो सम्बन्धो की कोई अहमियत नहीं। बहुत ही सुन्दरता से लेखक ने 'सकून' में समाज का एक पहलू दर्शाया है।
सुबोध जी की लघुकथाएँ आम आदमी के जीवन और उनकी मानसिकता को दिखने में पूरी तरह से सक्षम हैं। विषयगत् कहानियों के अनुरुप माहौल की जीवंतता देखते ही बनती है। बल्कि ऐसा लगता है यह तो हमारे बीच की ही कहानी है जिसे जीता-जागता अपने सामने देख रहे हैं। यह लेखक की अद्भुत कुशलता का प्रतीक है। निश्चित रुप से पाठकों को यह लघुकथाऐं पसन्द आयेंगी और वे इनसे निजत्व का नाता जोड़ेंगे। मैं लेखक व कवि सुबोध श्रीवास्तव जी को बधाई एवं शुभकामनाएं देता हूं।