मेरी रचना के स्रोत्र : लघुकथा आज के युग में एक लोकप्रिय विधा का स्थान प्राप्त कर चुकी है, इस बात से यह कहना कि कहानी और उपन्यास का आज कोई स्थान नहीं अथवा वे पढ़े नहीं जा रहे, पूर्ण सत्य नहीं है। सच तो यह है कि अच्छी कहानियाँ तो पढ़ी ही जाती हैं साथ ही अच्छे उपन्यास भी। कथावस्तु में जन-मानस को अरुचि नहीं है इसका उदाहरण छोटे परदे पर सालों-साल दिखाए जाने वाले वे सीरियल हैं जिन्हें लोग सपरिवार देखते हैं इसके विपरीत नई फिल्मों का चलन कम होता जा रहा है क्योंकि उनमें कथा वस्तु न के बराबर रहती है, किन्तु यहाँ बात लघुकथा की हो रही है। दो शब्दों में कहूँ तो लघुकथा में जनमानस विशेष रुचि ले रहा है।
कविता का जन्म पीड़ा से हुआ माना जाता है तो यह भी परम सत्य है कि पीड़ा से कविता सीधे नहीं उपजती। पीड़ा कविता का रूप वहीं लेती है जहाँ संवेदनशील हृदय होता है और उसे ग्रहणशील बुद्धि का सानिध्य प्राप्त होता है। जिस व्यक्ति के पास यह दोनों कोश हों उससे फिर पीड़ा बच नहीं पाती, फिर चाहे वह अपनी हो अथवा परायी। पीड़ा की वही अभिव्यक्ति साहित्य का रूप लेती है जो व्यष्टि के माध्यम से समष्टि की बात करे। वह बात चाहे कहानी, कविता, उपन्यास अथवा लघुकथा के माध्यम से करे अथवा गीत, ग़ज़ल के माध्यम से। कथा और संवेदना का चोली दामन का साथ है, फिर वह कथा लघु हो अथवा दीर्घ कोई अन्तर नहीं पड़ता।
आज से कुछ ही दशक पूर्व लघुकथा के मूल स्वर को लेकर खूब बहस छिड़ी तो कभी आकार को लेकर अखाड़ेबाजी हुई। वाद-विवाद एवं प्रतिवाद हुए। कोई कहता इसे व्यंगात्मक होना चाहिए तो दूसरा अखाड़ा इस मत को तुरन्त खण्डित कर देता। कोई लघुकथा के जन्म को लेकर विवाद खड़ा कर देता, फिर कुछ और तीर-ओ नश्तर चलते किन्तु फिर मामला वहीं का वहीं रह जाता और बात खत्म हो जाती।
आकार की बहस के चलते एक था ‘राजा एक थी रानी, दोनों मर गए खत्म कहानी’ जैसी लघुकथाएँ लिखी जाने लगीं और हर विषय पर लघुकथाएँ लिखी जाने लगीं। अछूते विषय तलाशे जाने लगे, किन्तु बात वहीं संवेदना पर आकर ठहर जाती है। कभी-कभी लोककथाओं को भी लघुकथा के निकट खड़ा पाया गया लेकिन आज इस सारी बहस का जैसे कोई अर्थ ही नहीं रह गया है।
हर प्रकार की कथावस्तु को मैं अक्सर अपने आस-पास बिखरा पाती हूँ, जिसे पकड़ना मेरे लिए एकदम सहज हो जाता है, किन्तु परोसना कठिन। इसी प्रकार कुछ घटनाएँ मेरे सामने आती रहती हैं, जिन्हें मेरी संवेदना को झकझोरने के लिए श्रम नहीं करना पड़ता। ऐसे विषय, ऐसी घटनाएँ, कविता की शृंखलाओं से बच निकलतीं किन्तु पीड़ा को जन्म तो दे ही जातीं। मन अकुला उठता, ऐसा क्यों हुआ? ऐसा नहीं होना चाहिए था आदि-आदि। विवेक हाथ में लेखनी पकड़ा देता है और कभी लघुकथा का जन्म होता है तो कभी कहानी का।
मेरी लघुकथाओं पर किसका प्रभाव है यह तो मैं नहीं जानती किन्तु मुझे सुकेश साहनी और अशोक भाटिया की लघुकथाएँ विशेष रुचिकर लगती हैं। मेरी लघुकथाओं में अधिकतर आम धारणा का दूसरा रुख़ होता है जो यदि देखा जाए तो उज्जवल पक्ष भी है। मेरा मानना है कि सच सदा वही नहीं होता जो दिखाई देता है। सच उसके अलावा भी होता है जो हमें नजर नहीं आता। काश ऐसा होता कि हम उसे पकड़ सकते।
‘प्रभात की उर्मियाँ’ मेरा प्रथम लघुकथा संग्रह है। पुस्तक को ‘प्रभात की उर्मियाँ’ नाम आदरणीय डॉ. राष्ट्रबन्धु (सं. बाल साहित्य समीक्षा) ने दिया ।
मैं उनकी आभारी हूँ। इस पुस्तक के लिए डॉ. सतीशराज पुष्करणा का विशेष आदेश मेरे लिए प्रेरणादायक रहा। इसके अतिरिक्त इस पुस्तक के लिए डॉ. बलदेव वंशी की मैं हृदय से आभारी हूँ, जिन्होंने अपने अमूल्य समय में से योगदान देकर मेरे इस संग्रह के लिए दो शब्द लिखे। बेटी समान असमिया लेखिका ‘कुहेली भट्टाचार्य’ एवं बांग्ला लेखिका ‘लेखा चन्दा संध्या’ के स्नेह की आभारी हूँ, जिनके स्नेह ने आगे बढ़ने के लिए सदा मुझे प्रोत्साहित किया ।
विद्वान लेखक श्री आर. सी. यादव जी की मैं बहुत आभारी हूँ जिन्होंने अपनी विद्वत्ता पूर्ण लेखन धारा से इस पुस्तक को संवारा है। पुस्तक आपको कैसी लगी यह जानने के लिए पाठकों की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
-आशा शैली
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