सुनीता शानू समकालिक दौर की बेहद सतर्क और चिंतनशील रचनाकार हैं। उनकी काव्यधारा में प्रेम की शीतक फुहारें हैं तो समकालिन विद्रूपों के खिलाफ विद्रोह के तीखे तेवर भी दिखाई देते हैं। उनकी सृजनात्मक प्रवृतियाँ सुपरिचित पोलिश कवयित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का की याद दिलाती है। शिम्बोर्स्का की भाँती सुनीता जी की रचनाओं में बड़ी-बड़ी थोथी सैध्दांतिक बातों का अभाव और मर्मस्पर्शी शब्द चित्रों का बाहुल्य है। जो खामोश ज्वालामुखी शिम्बोर्स्का की रचनाओं में धधकता है। उसकी गहरी आँच सुनीता की रचनाओं में भी मिलती है। जहाँ एक ओर शिम्बोर्स्का अपनी कविता डिस्कवरी में कहती है-
मै शामिल होने से इंकार करने में विश्वास करती हूँ
मै बर्बाद जीवन में विश्वास करती हूँ
मै कर्म में खर्च हुए समय में विश्वास करती हूँ
मेरी आस्था अडिग है-
अंधी और निर्लिप्त।
वहीं सुनीता शानू अपनी कविता “जीना चाहती थी मैं” मे पूछती है-
“दीमक भी पूरा नही चाटती
ज़िंदगी दरख्त की
फिर तुमने क्यों सोच लिया
कि मै वजह बन जाऊँगी
तुम्हारी सासों की घुटन
तुम्हारी परेशानी की
और तुम्हे तलाश करनी पड़ेगी वजहें
गोरख पांडॆ की डायरी या फिर
परवीन शाकिर के चुप हो जाने की।
ये सच है मै जीना चाहती थी
तुमसे माँगी थी चंद सांसें-
वो भी उधार।“
सुनीता ने अपनी कविताओं में उस दुनिया को प्रस्तुत किया है जो सामान्य जन की दुनिया है। इस दुनिया मे प्रेम है, संघर्ष है, भूख है, अभाव है और इन सबके साथ आत्मीय उत्सव धर्मिता है। उनकी कवितायें सामान्य जन के सरोकारों से जुड़े प्रश्न सीधी-सरल भाषा में पूरी सादगी के साथ उठाती हैं।
- आनंद कृष्ण