मैं कभी कभी कोशिश करता,
अपने आप से रूबरू होने की,
सवालों पर सवाल भी पूछ लेता,
अपने जमीर के घायल टुकड़े को।
दर्द जो तूने,सागर जितना पाला है,
अपने रूह की गहराई तो नाप ले,
कब तक आखिर कब तक तू पालेगा,
अपनी लहू लुहान हुई संवेदनाओं को।
चल लौटकर आजा फिर से एक बार,
और मिल ले अपने आप से,
उठा ले मौसम का मजा ,
जो अब तक तेरी सजा है।
तू बादल बन जा या बन जा गुलाब,
अपने जीवन में फैला दे खुशबू अनेक,
जिसको जाना होगा वो जाएगा लेकिन,
तू क्यों खो गया है इस जीवन के मेले में।
तू रुहरू तो हो अपने आप से,
बंद दरवाजे भी खुल जाएंगे,
और लौटकर हर एक पल तेरा,
फिर से खुशियों की झोली भर जाएगा।
भरत (राज)