उठे हुए कदम
उलझी हुई है जिंदगी इसी धूप छांव में।
कभी जाने की जल्दी होती है, कभी लौट आने की।
शाम होते होते परिंदे भी लौटते हैं अपने आशियाने पर।
इंसान की बिसात है, कहां ठहरेगा।
लौट आएंगे थके हुए कदम अपने घर की ओर।
सूरज तो कल भी निकलेगा, कल भी छुपेगा।
चलना तो रोज है, गिरना तो ज़िंदगी का शगल है।
गिर कर उठ जाओ, संभल जाओ।
यही तो जीवन की सफलता का जय घोष है
प्राची अग्रवाल ✍️