આખિર બિલાખી કે. જે. સુવાગિયા - (24 April 2020)आह! काफी असहाय परिस्थिति का वर्णन है! ये आधुनिक जीवन शैली की निरर्थकता का संत्रास है! रहा भी न जाय!... कहा भी न जाय!... और सहा भी न जाय!!... आखिरी दो लाइनों में 'हूं' की जगह 'है' होना चाहिए था।
वक्त भोथरी तलवार सरीखा
वक़्त भोथरी तलवार सरीखा,
सीने में चुभा है
रिस रहा लहू भीतर ही भीतर,
ज़ख्म टीसता है
जो खो गया उसकी याद की तपन गहरी है
जितने दुःख, परेशानियां हैं
उन्हें झेलने की ताक़त नहीं बची
मगर ये मृत तन फ़िर भी अकड़ से
तना है
गीली लकड़ी से फूले हुए पैर
सूखे पेड़ की कमजोर टहनियों जैसे हाथ लेकर
गले में अपमानजनक नौकरी का पट्टा
पहने अनमने मन से
रोज उसी राह पर जाता हूँ
और लौट आता हूँ।