ट्रेन में बैठते ही जाने क्यों ‘आर्ट ऑफ हैप्पी लिविंग’’ के साथ गिरीश सचदेव याद आ गए। विस्मृतियों के गहरे सागर से एक दम बाहर निकल आए। मैं सचमुच हैरान थी। यकायक उनसे जुड़ी छोटी-छोटी बातों, छोटे-छोटे वार्तालापों का एक कोलाज बन गया। ये एकदम अचानक इतनी सारी बातें उनसे जुड़ी मेरे सामने अम्बार बनकर कैसे आ जमी हैं?
सेमिनार के पहले ही दिन जब पंत की सौन्दर्यानुभूति पर बोले तो जाने क्यों पंत के सौन्दर्य पर आ कर टिक गए।
“बाल बड़े मशहूर थे पन्त जी के... बिल्कुल मैडम आशा जैसे।’’ मैं तो जैसे सकुचा गई थी थोड़ी सी आँखें उठा कर देखीं तो गिरीश मुझे ही देख रहे थे।