अपने नए बने एक सौ ग्यारह गज के एक मंजिले कॉर्नर मकान का लोहे का भारी गेट खोलकर मैं अपनी मोटरसाइकिल की तरफ लौटा और उसे स्टार्ट करके फर्स्ट गेयर में एक झटके से रैंप पर से चढ़ा कर आँगन में ले आया।
अब मुझे प्रेक्टिस हो गई है,मैंने मन ही मन सोचा और अपनी कार्य-कुशलता पर खुद ही अपनी पीठ थपथपा दी।सरकारी दफ्तर की बाबूगिरी करते करते मेरी आदत बन गई है,खुद ही अपनी तारीफ कर लेता हूँ।हिंदुस्तान की एहसान फरामोश जनता तो सरकारी बाबू में से कीड़े ही निकाल सकती है,तारीफ तो करने से रही।
मोटरसाइकिल खड़ी करने के बाद गेट बंद करने लगा तो ध्यान आया कि गेट पर रेड ऑक्साइड लगा है,पेंट बाकी था।छत की रेलिंग का पेंट भी बकाया है।क्या करूँ?पैसा बचता ही नहीं है।वेतन आता है और खत्म हो जाता है।मकान के बचे काम बचे ही रह जाते हैं।इस बार वेतन मिलते ही पहला काम गेट का पेंट करवाना ही होगा,यह निश्चय करके मुड़ा ही था कि किसी ने कॉलबेल बजा दी।मुड़कर देखा तो तीन चार आदमी खड़े दिखे।आगे आगे गुप्ता था।इस गुप्ता को देख आंखों में खून उतर आता है।यह घटिया आदमी उस मकान में ग्राउंड फ्लोर पर किरायेदार था जिसमें हम लोग टॉप फ्लोर पर रहते थे।उसका मकान पिछली गली में बन रहा था,मेरा मकान इस गली में बन रहा था।इस आदमी ने वहाँ रहने के दौरान इतना तंग किया कि इस आदमी की शक्ल से नफरत हो गई।
"हाँ!क्या काम है?"मैं गेट खोले बगैर रुखाई से बोला।
"गेट तो खोलो शर्मा जी!"गुप्ता धूर्तता से मुस्करा रहा था।
आदमी क्या समझो ,दोमुंहा सांप था।
गेट तो खोलना ही पड़ेगा,सोचकर गेट खोला लेकिन इस तरह उसके सामने अड़ गया कि वह या उसका कोई साथी अंदर न आ सके।
"हाँ!बोलो,क्या काम है?"उसके हाथ में नोटबुक थी,जिसमें तीन चार नाम लिखे थे।मैं समझ गया कि फिर किसी बहाने से पैसे इकट्ठे किये जा रहे हैं।
तीन महीने हुए थे इस मकान में गृहप्रवेश किये,तीसरी बार यह आदमी पैसे इकठ्ठे करता फिर रहा था।
"हमारी गली के पीछे जो जंगल है,आज सुबह उसमें एक नंदी मरा हुआ मिला है।उसे दफनाने के लिए चंदा कर रहे हैं।
"नंदी क्या?"मुझे पता था लेकिन फिर भी अनजान बनते हुए पूछा।
"बैल!"एक पंजाबी से आदमी ने उकताए हुए स्वर में जवाब दिया,"शिव भगवान की सवारी!कैसे हिंदू हो,इतना भी नहीं जानते?"
मुझे बहुत तेजी से गुस्सा आया लेकिन बर्दाश्त कर गया।
"मंदिर आया करो!"गुप्ता विषभरी मुस्कान के साथ बोला,"ज्ञान बढ़ जाएगा"
मेरे तन बदन में आग लग गई।
मेरा गुस्से से विकृत मुँह देखकर पीछे खड़े ठिगने से आदमी ने बात संभालनी चाही,"सर ने मंदिर का चंदा सबसे पहले दिया था।आज भी सहयोग करेंगे"
मुझे याद आया कि शुरू शुरू में कॉलोनी के पार्क में बनने वाले मंदिर के लिए दो हजार रुपए चंदा खुशी से दिया था।यही गलती कर दी मैंने!इन लकड़बग्घों की उम्मीदें बढ़ा दी मैंने!
"जिनको सांड और बैल में अंतर नहीं पता वे लोग मुझे हिंदू धर्म के बारे में ज्ञान न दें तो बेहतर!"
मैंने कटाक्ष करके अपना बदला उतारा।
"चलो छोड़ो इस बात को,"चौथा आदमी बोला और पटाक्षेप करने की कोशिश की,"नंदी को दफनाने के लिए तीस हजार की जरूरत है अभी कॉलोनी में तीस घर हैं।इसलिए सब लोग एक एक हजार दे रहे हैं।आप भी अपने हिस्से के एक हजार दे दीजिए।अभी पांच हजार की ही कलेक्शन हुई है।काफी घरों में जाना बाकी है!"वह आदमी ठहरे ठहरे स्वर में बोला।अगर यह आदमी अकेला आता तो शायद मैंने चंदा दे दिया होता।
"देखिए श्रीमान जी!यह काम नगर निगम का है।उनको सूचना दे दीजिए वे अपने आप इंतजाम करेंगे।"मैंने कहा,"अब आप मुझे माफ़ करें।मैं अभी ऑफिस से आया हूँ।थका हुआ हूँ मुझे आराम भी करना है।"
"हम सब लोग भी अपने अपने काम से लौटे हैं।गुप्ता जी अपनी कंपनी के जनरल मैनेजर हैं,इनकी एक इम्पोर्टेन्ट मीटिंग थी उसे छोड़कर समाज का काम कर रहे हैं।"वह पंजाबी आदमी थोड़ा तल्ख हो रहा था,"आप हजार रुपये दे दो।फिर आप आराम कर लेना।"
"आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे मैंने आपका कोई कर्जा देना है।"मैंने हँस कर कहा।मेरी हँसी में जहर घुला था।
मानव मात्र का समाज पर जन्मजात कर्ज होता है जिसे मानव जितनी क्षमता होती है उतना चुकाता है।"वही सज्जन कह रहे थे।ऐसे लोगों को मैं पथभ्रष्ट ज्ञानी कहता हूँ।ऐसे लोग धर्म और समाजवाद का विलक्षण घालमेल करते हैं और उस पर तुर्रा यह कि इसका वे गलत जगह इस्तेमाल करते हैं।
"ओह!तो यह कर्ज वसूलने की जिम्मेदारी आपको दे रखी है!"
मेरे यह कहते ही गुप्ता आग बबूला छप गया और गुस्से से भर कर बोला,"तो साफ साफ बोलो कि आप नहीं देंगे हजार रुपए!'
"आवाज नीचे कर गुप्ता!मैं तेरी कंपनी का एम्प्लॉयी नहीं हूँ।अपनी जी एम गिरी वहीं दिखाना!"मैं गुस्से में बोला तो उसका चमचा पंजाबी बोला,"भाई साहब!आपको तो तमीज ही नहीं है।घर आए आदमी से कैसे बात की जाती है!"
"अभी आप मेरे घर नहीं आए हो।बाहर खड़े हो।आप जैसे को मैं घर बुलाता भी नहीं,समझे न!मैं कह इससे रहा हूँ तेरे क्यों आग लग रही है!"मैंने दुगने गुस्से और तिगुनी ऊँची आवाज में कहा।
मेरी आवाज सुनकर मेरी पत्नी बाहर निकली।मुझे उनसे झगड़ते देखकर बोली,"क्या बात हो गई!"
मैं कुछ न बोला।वे भी कुछ न बोले।लड़ाई पर ऐसे ब्रेक लग गया जैसे उफनते दूध में ठंडे पानी का छींटा मार देने से ब्रेक लग जाता है।
गुप्ता और उसके एलची बगैर एक भी शब्द बोले लौट गए।क्या उन लोगों में अभी इतनी सभ्यता बची थी कि वे एक महिला की उपस्थिति में झगड़ा नहीं करना चाहते थे या वैसे ही उनका धैर्य चुक गया था।
मैं अंदर आकर सोफे पर अधलेटा सा हो गया।मेरे मस्तिष्क में रह रहकर क्रोध की बिजली चमकती और बुझ जाती।मुझे लग रहा था कि इन हरामी लोगों के साथ बहस में नहीं उलझना चाहिए था।मगर अब क्या हो सकता था।
पत्नी चाय बनाकर लाई थी।
"जय कहाँ गया?"मैंने पूछा था।
जय मेरे सात वर्षीय बेटे का नाम था।
"जय कहाँ टिकता है।स्कूल से आने के बाद बैट उठाकर निकल जाता है।कितने ही दोस्त बन गए हैं उसके!"पत्नी मुस्कराते हुए बोली।
"चलो किसी को तो यह मुहल्ला पसंद आया।"
मेरी पत्नी फिर से मुस्करा दी।
इस औरत की यही खराबी है।हमेशा चुप रहती है।औरतों की तरह चर चर न भी करे तो जरूरी होने पर कुछ शब्द तो बोले।
अभी अभी मैं कितना झगड़ा लगाकर लौटा हूँ।कम से कम इतना ही कह दे कि मैं सही था या गलत!
मैं कुढ़ रहा था।कुढ़ता ही रहता अगर जय न आ जाता।
"डैडी!"अंदर आते ही जय बोला,"चलो बाहर!खेलने!"कहकर वह मेरे ऊपर ही चढ़ने लगा।
"क्यों?तेरे दोस्त कहां गए?"मैंने उसके गाल को चूमा और बालों में हाथ फिराया।
"ओ हो!गीला कर दिया!'जय ने गाल पोंछा और बोला,"सब लोग लड़कियों वाले गेम खेलते हैं।पिट्ठू गर्म!क्या वाहियात गेम है।"
मैं हँसने लगा।
"यह वाहियात शब्द तूने कहाँ से सीखा?"
"सामने खान साहब हैं न सहकारी बैंक वाले!दिन भर उनके बेटे के साथ घूमता है।वहां से सीख रहा है।"पत्नी मुस्करा दी थी।
मैं जय के साथ गली में खेलने आ गया।रोजाना की आदत की वजह से मैंने ट्रैक सूट पहन लिया था।
जय बैटिंग कर रहा था और में बॉलिंग!गली में आते जाते लोगों की वजह से बार बार रुकना पड़ रहा था।
तभी मेरे पड़ोसी खान साहब अपनी शरीके हयात के साथ घूमते हुए इधर ही आ गये।
खान साहब मूलतः मेवात से संबंध रखते हैं लेकिन इनके वालिद साहब सहारनपुर इंटर कॉलेज में शिक्षक थे।इस वजह से उनकी बोली में मेवात का पुट बिल्कुल नहीं है।बहुत बढ़िया उर्दू बोलते हैं दोनों मियां बीवी।बीवी सायरा दिल्ली की हैं इसलिए उनकी उर्दू में थोड़ा तीखापन है।खान साहब का लहजा सहारनपुर की अमराइयों की मिठास लिए हुए है।खान साहब की तीन बेटियां और एक बेटा है।चारों बच्चे इंग्लिश मीडियम में पढ़ने ले बावजूद घर में मादरी जबान उर्दू बोलते हैं।मेरा बेटा जय उनकी संगत विशेषकर इनके बेटे समीर की संगत में रहने की वजह से काफी उर्दू शब्द सीख गया है।
"और भई तेंदुलकर!क्रिकेट चल रहा!"खान साहब मेरे अभिवादन का उत्तर देने के बाद बेटे से बोले।
"इसको तो पूरा दिन बैट दे दो फिर इसे भूख लगेगी न प्यास!"खान साहब की बीवी सायरा हंसते हुए बोली।
"गुप्ता से कुछ बहस हो गई क्या?"खान साहब ने संजीदा होते हुए पूछा।
"नहीं!कुछ खास नहीं!कुछ बकवास कर रहा था क्या?मेरे बाद शायद आप लोगो के पास ही गए थे शायद!"
"हाँ!एक हजार रुपये ले गया नंदी के अंतिम संस्कार के नाम पर!"खान साहब के स्वर में एक हजार की थूक लगने का अफसोस था।
"मेरे बारे में कुछ बोल रहा था?"मैंने आंखें सिकोड़ते हुए पूछा।
"कुछ खास नहीं!बस इतना ही कि लोग समाज के कामों में रुपया देने में आनाकानी करते हैं।"खान साहब उसकी बात छुपाते लग रहे थे,"वो पंजाबी ज्यादा उछल रहा था।घटिया आदमी है!"खान साहब मुँह बिचका कर बोले।
"मैंने तो कह दिया कि दफनाने पर हद से हद दस हजार खर्च आएगा।"सायरा बोली तो खान साहब हँस दिए,"ये बोले बगैर नहीं रहती हैं।'
"फिर क्या बोला, गुप्ता!उसके तो आग लग गई होगी?मैंने हँसते हुए कहा।
खान साहब भी हँसने लगे।
"भड़क कर कहने लगा,भाभी जी आप करवा दो दस हजार में!"सायरा भाभी तीखे स्वर में बोली,"मैंने तो कह दिया,भाई साहब मैं क्या कब्रिस्तान की मुलाजिम हूँ।मैंने तो एक बात की है।
सुनकर गुप्ता और उसके साथी एक मिनट न रुके!"
उनकी बात सुनकर हम दोनों हँसने लगे।
जाते जाते वह बोली,"जाहिदा को बोलो!थोड़ी बाहर की हवा खा लिया करे।"
मैंने सहमति में सिर हिलाया।जाहिदा मेरी पत्नी का नाम है।हमारी लव मैरिज है।उसने धर्म परिवर्तन नहीं किया है फिर भी लगभग रोजाना मंदिर जाती है।गाय बैल को रोटी देती है पंडित पुजारी भिखारी कोई उसके दरवाजे से खाली नहीं जाता है।बस एक कमी है उसमें बोलती बहुत कम है!प्यार करने से लेकर शादी के लिए राजी करने का काम मुझ अकेले को ही करना पड़ा।पहली मुलाकात से लेकर आज तक उसका चेहरा पढ़कर मैं बता सकता हूँ,कब वह राजी है और कब नाराज!
रात को साढ़े नौ बजे घर की बेल बजी।इतनी रात कौन होगा,बाहर निकलकर देखने गया।यह इलाका अभी कम आबाद है।इसलिए रात को बगैर तसल्ली किये मैं गेट खोलने कभी नहीं गया।सीढ़ियों के पास खड़े होकर ही पूछा,"कौन है भाई!"
"गेट खोलो!हम आर डब्ल्यू वाले हैं।आपसे बात करनी है।"यह तो शाम वाले पंजाबी की आवाज है।
"क्या बात करनी है?"मैं वहीं खड़े खड़े बोला।
"आपने शाम को हमारी बेइज्जती की है।इसलिए हम लोग आपसे कहने आए हैं कि आप अपना व्यवहार ठीक कीजिये।"
वही आदमी बोल रहा था।
"अच्छा!"मैं बोला, मुझे गुस्सा नहीं चढ़ रहा था।
"हां!पूरी कॉलोनी में से सिर्फ आपने एक हजार रुपये नहीं दिए।आप माफी मांगिये और एक हजार रुपये दीजिये।"
"और न करूँ तो?"ऐसा कहते हुए मेरी आवाज न जाने क्यों काँप रही थी।
"फिर हमसे मत कहना!कल को कोई बात आपके साथ होती है तो!"यह बात कोई दूसरा आदमी बोल रहा था।
"नहीं कहूंगा!अब आप जाईये!"
"नहीं जाएंगे!"कहकर वे गेट भड़भड़ाने लगे।दो तीन लोग खोलो,खोलो चिल्लाने लगे।
"बदतमीजी करने की जरूरत नहीं है।अभी सौ नम्बर पर फोन करता हूँ!"मैं गुस्से से काँपता हुआ चिल्लाया।
"कर बहन####"कोई उधर से भी चिल्लाया और गालियों की बौछार शुरू हो गई।
मैं अंदर आया।दरवाजा मजबूती से बंद किया।मोबाइल फोन उठाकर सौ नम्बर डायल किया।नॉट रीचेबल ही आता रहा।बाहर शोर थम गया था।
मैं सावधानी से बाहर निकला।
गेट पर कोई नहीं था।
गेट तक आकर बाहर झांका।
कुछ लोग ऊंची आवाज में बात करते हुए दूर जा रहे थे।
मैं दरवाजा बंद करके अंदर आया।
दरवाजे की सारी चिटकनियाँ और कुंडियां लगाना नहीं भुला था।
बेटे का बैट ड्राइंग रूम में सेंटर टेबल के सहारे खड़ा था।
न जाने किस भावना के वशीभूत मैं बैट उठाकर बेडरूम में ले आया।
पत्नी निश्चिंत होकर सो रही थी।उसे बिल्कुल भान नहीं था कि बाहर क्या हुआ है।
मैं उसके गोरे निर्दोष गोल चेहरे को देखता खड़ा था।मेरी टांगे तब भी हल्की हल्की काँप रही थी।
अचानक उसने आंखें खोली।
"कहाँ जा रहे हो?"उसने पूछा था।
"प्यास लगी है।पानी पीने जा रहा हूँ"यह कहते कहते मुझे अचानक प्यास लग आई थी।
"मुझे ला देना पानी!"वह बोली तो मैं सिर हिलाता हुआ किचन में चला गया।
पानी पीकर और उसके लिए पानी लेकर लौटा तो बेटे के बेडरूम में भी चक्कर लगाता आया।
वह भी चैन से सो रहा था।