सौरभ कहां हो तुम? जब से गए हो, पीछे पलट कर भी नहींं देखा, क्या इतने निर्मोही हो गए हो? भूल गए हो अपनी दोस्त स्वर्णा को? मैं जब कभी भी आती हूं भैया भाभी के घर, मेरी नजरें सड़क पर टिकी रहती हैं। अपने ख्यालों में ताना-बाना बुनती रहती हूं, देखती हूं तुम आते हो हमेशा की तरह अपनी साइकिल से, साइकिल आंगन में खड़ी करके आदतन ही बिना इधर उधर देखे चुपचाप सिर झुकाए सीढियां चढ़ने लगते हो। मैं गुस्सा भी होती हूँ, लेकिन तुम कहीं नहीं हो, बस खयाल है जो कौंध कर रह जाता है। खयाल तो सिर्फ खयाल ही है, कमरा वही है लेकिन अब कोई और ही रहता है। सौरभ तो पंछी था जो उड़ गया और कभी लौटा ही नहीं।
किस दुनिया में गुम हो गए हो सौरभ! अपने शहर, अपने घर लौटे थे लेकिन स्वर्णा को क्यों भूल गए? अभी तक तुम्हे एक नज़र देखने को तरसती हूँ। शायद सुरभि लौट आई होगी। यह तो अच्छी बात है। कभी एकदफा उसे लेकर ही आ जाते। तुम्हे तो मेरे घर का पता मालूम ही था। मुझे अपना पता दे जाते तो मैं ही आ जाती तुम्हे खोजते हुए, मैं तो बाहर खड़ी अब तक तुम्हारी राह तका करती हूँ। तुम इतने निर्मोही कैसे हो सकते हो? हर वर्ष जब होली आती है तो मैं तुम्हारे लिए तरसती हूँ, तड़पती हूँ, क्या तुम्हे भी याद है होली का वह दिन? आशा है नहीं भूले होगे तुम भी।