सीढ़ियों पर रखा बरामदा
उदास था!
धूप ने आँखें मूंद ली थी,
होठों का कंपन
थम कर आनंद हो गया था,
मुझे लगा,
मेरे हाथ, एक चेहरे को आकार दे रहे हैं।
धूप अब फैलने लगी थी,
लौटते कदमों ने महसूसा था,
बरामदा अब उदास नहीं है।
कदमों की बोझिलता का फैसला था।
रास्ते कितने ही उलझ जाएं
बदले नहीं होंगे...............