धर्म और आध्यात्म में अंतर
आज हम यहाँ धर्म और आध्यात्म के बारे में थोड़ी सी चर्चा करेंगे।
एक बार एक सज्जन ने मुझसे पूछा तुम आध्यात्म पर लिखती हो। ये बताओ धर्म और अध्यात्म में अंतर क्या है?
मैंने उनको जबाव दिया,,, "वैसे तो धर्म और आध्यात्म एक ही हैं, दोनों में बिल्कुल सूक्ष्म सा ही अंतर है, पर आज के समय में जैसा धर्म को लोग अपना रहे हैं उसके अनुसार बहुत बड़ा अंतर है।
उन्होंने पुनः पूछा कैसा अंतर है??
तब मैंने उनको बताया,,, जिस प्रकार...
आत्मा और शरीर में अंतर है।
नदी और सरोवर में अंतर है।
धरती और आसमान में अंतर है।
कमल और कुमुदनी में अंतर है।
मोक्ष और मृत्यु में अंतर है।
गीता और भागवत में अंतर है।
वो सज्जन फिर बोले हमें तुम्हारे ये अंतर नही समझ आये।
इस पर फिर मैंने उन्हें समझाया कि धर्म वो है जो आचरण में उतारा जाय धारयते मतलब धारण किया जाय ...
इनमें वो धर्म शामिल होते थे जैसे,,, मातृ ऋण, पितृ ऋण, गुरु ऋण, देव ऋण आदि और इन ऋणों को व्यक्ति व्यक्तित्व में आचरण में उतार कर एक कर्तव्य मानकर करता था।
परन्तु कालांतर में धर्म का स्वरूप कुछ आडम्बरों द्वारा परिवर्तित हो गया है।
एक प्राचीन धर्म था सनातन धर्म जिसे लोग आज हिंदुत्व या हिन्दू धर्म के नाम से जानते हैं।
परन्तु अब समाज को हिन्दू धर्म, मुस्लिम धर्म, सिक्ख धर्म, ईसाई धर्म और भी न जाने कितने धर्मों में बाँट दिया गया है।
और आध्यात्म वो है जो दो शब्दों के मेल से बना है अध्य आत्म ।
अध्य का अर्थ होता है "चारोंओर"
आत्म का अर्थ होता है "स्वयं"
अर्थात अपने आप मे उतर कर स्वयं के अध्ययन को आध्यात्म कहते हैं।
प्राचीन धर्म और धर्म ग्रन्थों की मैं आलोचना नही कर रही हूँ।
परन्तु आज के परिदृश्य को देखते हुए मुझे आध्यात्म सर्वश्रेष्ठ लग रहा है।
क्योंकि धर्म के नाम पर हमें बाँटा जा रहा है परन्तु अध्यात्म हमें जोड़ना सिखाता है।
सनातन धर्म को मैं भी मानती हूँ जो एक कर्तव्य अधिरोपित करता था।
मूर्ति पूजा भी करती हूँ, किसी धर्म की निंदा भी नही करती सभी धर्मों का सम्मान करती हूँ।
परन्तु धर्म के नाम पर आडम्बर और हिंसा का विरोध करती हूँ। क्योंकि कोई भी धर्म हमें अन्याय करना हिंसा करना नही सिखाता।
ये कैसा धर्म है जो अधर्म कराए, अन्याय कराए, हिंसा कराए! अर्थात अपने धर्म को धारण करें और दूसरों के धर्म का सम्मान करें!
अनिला द्विवेदी तिवारी