हनुमान जन्मोत्सव
नमस्ते मित्रों,
पुराणों के अनुसार चैत्र मास शुक्ल पक्ष चित्रा नक्षत्र की पोर्णिमा को मंगलवार के दिन सुबह 6 बजे हनुमान जी का जन्म हुआ। तथा कहीं कहीं हनुमान जी का जन्मोत्सव कार्तिक मास की चतुर्दशी तिथि यानि छोटी दीवाली या नरक चौदस के दिन भी मनाया जाता है। हनुमान जी के जन्म स्थान को लेकर बहुत से क्षेत्र अपने अपने दावे प्रस्तुत कर रहे हैं। कोई झारखण्ड, कोई कर्नाटक और महाराष्ट्र में जन्म होने के सबूत बता रहे हैं। किन्तु अभी तक हम सबके आराध्य श्री हनुमान जी महाराज के जन्म स्थान पर एकमत नहीं बन पाया है। बहरहाल जो भी जन्म स्थान हो उनका, हम सब तो उन्हें यूं ही पूजते रहेंगें। हनुमान जी कपिराज केसरी व माता अंजनी के पुत्र एवं भगवान शंकर के रूद्र रूप के 11 वें अवतार हैं। इनके जन्मोत्सव पर सभी मंदिरों व घरों में लोग धार्मिक आयोजन करते हैं हनुमान चालीसा, सुंदर काण्ड एवं राम नाम जाप का पाठ , अभिषेक, पूजन, हवन, महाआरती, महाप्रसादी का आयोजन किया जाता है।
हम सबने कहीं पढ़ा है कि हमारे पवनपुत्र हनुमान जी ने बाल्यकाल में पेड़ के पीछे से झांकते सूर्य को फल समझकर अपने मुंह में छिपा लिया था। सूर्य को हनुमान जी के मुख से बाहर निकलाने हेतु इन्द्र ने हनुमान जी पर वज्र अस्त्र से प्रहार किया जो हनुमान जी की ठुड्डी यानि हनवटी पर लगा जिससे ही उनका एक नाम हनुमान पड़ा। सभी देवताओं ने उन्हें शक्तिशाली, बलवान, बुध्दिमान एवं चिरंजीवी होने का वरदान दिया।
कथाओं के अनुसार हनुमान जी का पूरा जीवन ही प्रेरणादायी संदेश प्रदान करता है, जिससे हमें अनेकानेक बातें सीखने को मिलती हैं। उनका एक गुण है निअर्हंकारी रहना। जब वे अपने आराध्य श्रीराम जी की धर्मपत्नि सीता माता की खोज में समुद्र पार कर रहे थे तब उन्हें एक राक्षसी सुरसा मिली थीं। जिसकी यह शर्त थी कि उसके मुंह में जाये बगैर समुद्र पार नहीं किया जा सकता। हनुमान जी ने आकार बड़ा कर लिया। सुरसा ने मुंह भी बड़ा कर लिया कि उसकी शर्त का पालन करवाकर ही मानेगी वह। हनुमान जी ने और अधिक अपना आकार बड़ा कर लिया। यह देख सुरसा राक्षसी ने अपने मुंह का आकार चार गुना तक बड़ा कर दिया। इतना देखते ही हनुमान जी ने तुरंत चींटी के समान अपने शरीर का आकार छोटा कर लिया तथा वे राक्षसी सुरसा के मुंह में जाकर उसके मुंह बंद करने से पहले ही बाहर भी आ गये। जिससे सुरसा की शर्त भी पूरी हो गई और हनुमान जी के आगे जाने का रास्ता भी खुल गया था। सार हम समझने जायेंगें तो शत्रु को बल के साथ साथ बुद्धि से भी मात देनी पड़ती है। तभी उस पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
फिर हनुमान जी जब लंका में माता सीता के पास पहुंचे और सीता माता ने परिचय पूछा था, तब भी उन्होंने स्वयं को श्रीराम जी का दूत बोलकर संबोधित किया था। इस तरह बोलने में कहीं भी अहंकार नहीं झलक रहा है। यही गुण हमें निअर्हंकारी होना सिखाता है। हनुमान जी चाहते तो वे स्वयं ही सीता माता को लंका से ले जाते तथा रावण का वध भी अकेले कर सकते थे। किन्तु उन्हें श्रीराम जी के द्वारा यह आज्ञा नहीं दी गई थी कि ऐसा कुछ करके आना है। फिर भी अशोक वाटिका उजाडना एवं लंका में आग लगाना यह दोनों कार्य उन्होंने करके आये थे। अच्छा , लंका में आग लगाने में उनका मैनेजमेंट गुण दिखता है, कपड़ा रावण का, तेल रावण का, आग रावण ने लगवाई, और जला क्या - तो रावण की लंका। अर्थात अपना कूछ नहीं लगा, और लंका भी जल गयी।
वापस लौट के आने पर जब जामुवंत ने श्रीराम जी से कहा कि हनुमान सब कार्य करके आ गये तो हनुमान जी बोले कि प्रभु मैंने कुछ नहीं किया है। जो भी किया है, सब आपने ही किया है। मैं तो दूत मात्र हूं।
हमें भी हनुमान जी से इस तरह के अलग-अलग गुणों को अपने अंदर समाहित करना होगा। उनके जीवन से हमें सीखकर अपना जीवन भी उज्जवल बनाना होगा। और हां इस तरह अगर हम लोग करते हैं तो उसमें श्री हनुमान जी भी प्रभु श्रीराम की आज्ञा से हमारी सहायता अवश्य करते हैं।
अच्छा मित्रों, अगले हफ्ते फिर मिलेंगें, किसी नए विषय के साथ। जय श्री राम , जय श्री हनुमान। आप सभी को हनुमान जन्मोत्सव की बहुत बहुत शुभकामानाएं.
स्वस्थ रहिए, मस्त रहिये, मुस्कुराते रहिए। धन्यवाद.
- जयश्री गोविन्द बेलापुरकर, हरदा