समानता के इस युग में यदि देखा जाए तो हम पुरुषों से महिलाओं जैसी उम्मीद नहीं रखते परंतु हमारा हरसंभव प्रयास होता है कि हमारी बेटी किसी भी मायने में पुरुष से कम ना हो। अब जब हमने 'किसी भी मायने में पीछे ना होने की बात कही' तो हमने यह स्पष्ट नहीं किया कि इसके अंतर्गत क्या क्या आता है। क्योंकि अपवाद तो हर जगह होते हैं। उदाहरण स्वरुप पढ़ना, नौकरी करना, विदेश जाकर पढ़ना, और हर साहसिक कार्य करना यह सब तो हमें मान्य है परंतु जब कहीं किसी लड़की को हम नुक्कड़ पर खड़े होकर सिगरेट के कश लगाते देखते हैं, या बहुत ही न्यून वस्त्र पहन आधी रात किसी होटल में जाते देखते हैं। या किसी लड़के के गले में हाथ डाल दोस्तों की तरह रोड पर भ्रमण करते देखते हैं। तब हम आधुनिकता की उपेक्षा करते हैं। उन लोगों पर जो आगे बढ़ने के नाम पर हद से आगे बढ़ गए हैं, उन पर तंज कसते हैं बुरा भला कहते हैं। परंतु सच तो यही है कि यह हमारे द्वारा ही रचा गया परिदृश्य है। हमने बच्चों को उड़ने की स्वतंत्रता तो दी पर आजादी की भी कीमत होती है, वह बताना भूल गए। तब ऐसे में कमी कहां रह गई, विचारणीय विषय है, है ना!
आजकल हम हर बेटी को बेटा बनाने की जद्दोजहद में लगे हैं। परंतु बेटे की परिभाषा केवल आजादी से बेखौफ हो गाड़ी मोटर घूमना, या बिना किसी इजाजत के आवारागर्दी करना नहीं है।बेटा होने का अर्थ है 'ज़िम्मेदार होना'। इस मिथ्या जगत में हमने पुत्र के वास्तविक अर्थ को नहीं समझा बल्कि अपनी ग़लतफहमी के चलते अपनी बच्चियों को भी ग़लत राह जाने को विवश कर दिया।
यदि ग़ौर से सोचा जाए तो वास्तव में स्त्री तथा पुरुष, दोनों की बनावट ही नहीं बल्कि मनोभावों में भी अंतर है। पुरूष जहां दंभ की पहचान है (कुछ अपवाद भी हैं) वहीं स्त्री ममता की मूरत कहलाती है। जो सौम्यता कोमल ह्रदय एक नारी के पास है, वहीं इसके विपरीत पुरुष सदा प्रैक्टिकली सोचते हैं। जहां एक स्त्री अपनी परेशानी केवल मन हल्का करने हेतु साझा करती है वहीं पुरुष अपनी उलझन केवल उन्हीं को बतलाते जहां उन्हें समाधान की आशा हो।
हम ना जाने क्या सोचकर किस भेड़चाल में चलते हुए, अपनी बेटियों को ना केवल गर्भ के बाहर लिंग परिवर्तित करने को विवश कर रहे हैं बल्कि एक नयी जंग को निमंत्रण दे रहे हैं। वह जंग किन्हीं दो गुटों के बीच नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति के भीतर शुरू हो जाती है, वह व्यक्ति हर बेटी है। तार्किक और भावनात्मक पहलुओं के बीच की जंग। जो कार्य हम गर्भ में नहीं कर पाते उसे हम इंसान के बाहर आने के पश्चात अंजाम देने का प्रयास करते हैं। हमारे इन खोखले प्रयासों के चलते किसी के भाव, किसी के संपूर्ण अस्तित्व पर प्रश्न लग जाता है।
जैसा कि कहा गया कि संतान का होना ही सबसे बड़ा सुख है परंतु यदि काबिलियत है तो एक बेटी भी संस्कारी तथा शिक्षित होकर कर्त्तव्यों का वहन कर सकती है, अपने माता-पिता का संबल तथा सहारा बन सकती है। इसके लिए उसे अपनी पहचान तथा चाल चलन बदलने की आवश्यकता कतई नहीं है। आज बेटियों को बेटे जैसा बनाने की होड़ में हमने कलियों को करेला बनाना शुरू कर दिया है। जो फायदा दे या ना दे परंतु कड़वा ज़रूर हो जाता है। भ्रूण हत्या के पाप से तो बच गए पर स्वार्थवश किसी की भावनाओं तथा अस्तित्व को तोड़ना मरोड़ना गुनाह नहीं!?? सच तो यह है कि ईश्वर ने तन के साथ जैसा मन हमें दिया है उसे ह्रदय से स्वीकार कर उसी को और बेहतर बनाने का प्रयास करना चाहिए ना कि अपने अनुसार रूपांतरण करना। क्योंकि भगवान ने तो बहुत ही सोच विचार कर ही किसी को बनाया है परंतु हम इंसान तो स्वार्थ निहित ही सब करते हैं। तो जैसे विज्ञान के फायदे दिखे तो नुकसान उससे कई ज़्यादा हुआ, वैसे ही कहीं हमारी सोच ही हमारी दुश्मन ना बन जाए....
निशी ✍️