अतुल्या-टाॅक्स..
जो आप करते हैं, आपने किया वही है, मगर वो सबकुछ हुआ नहीं है, और होने का ही मूल्य है, करने का कोई मूल्य नहीं है।
और हमारे जीवन में यह रोज हो रहा है। अगर हृदय में स्पंदन न हो रहा हो, तो आप मेकेनिकली कर सकते हो, लेकिन उस करने से क्या अर्थ है? सारे मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे यही तो कर रहे हैं, आप के सभी धर्म मात्र क्रियाकांड हैं, मात्र किया जा रहा है, हो नहीं रहा है।गीता पढ़ी जा रही है, यानि की जा रही है, हो नहीं रही है। आपने सुन लिया है कि गीता को पढ़ने वाले पाप से मुक्त हो गए हैं, मोक्ष को उपलब्ध हो गए हैं, आपने भी सोचा, हम भी हो जाएं! आपने भी पढ़ ली, लेकिन आपका पढ़ना सिर्फ करना मात्र है, होना नहीं है। आप परमात्मा को धोखा न दे पायेंगे, यह आप शायद ही समझ पायेंगे कि ऐसी घटनाएं रोज नहीं घटतीं।
जीवन पुनरुक्त नहीं होता, हर भक्त ने परमात्मा की प्रार्थना अपने ढंग से की है, किसी और के ढंग से नहीं, तो आप क्यों किन्हीं को फॉलो करने में अपनी ऊर्जा व्यर्थ कर रहे हैं, हर प्रेमी ने प्रेम अपने ढंग से किया है, कोई मजनूं और किसी शीरी और फरिहाद, उनकी किताबें रखकर और पन्ने पढ़ पढ़कर और कंठस्थ कर करके प्रेम किया जा सकता है क्या।
कोई जीवन नाटक नहीं है कि उसमें पीछे प्रॉम्पटर खड़ा है, और वह कहे चले जा रहा है, अब यह कहो, अब यह कहो, जीवन जीवन है भाई , आप नित दिन उसे पुनरुक्त करके खराब कर रहे हैं। गीता आप हजार दफा़ पढ़ लीजिए, लेकिन जैसे अर्जुन ने पूछा था, वैसी जिज्ञासा तो नहीं ही होगी न आपके भीतर, वैसी प्राणपण से उठी हुई मुमुक्षा तो न होगी आपके अंतस में, तो जो कृष्ण को इतना सरल हुआ कहना, और जो अर्जुन को संभव हुआ उसे समझना, वह आपमें तो नहीं घट सकेगा ना उसे पढ़कर, तो काहे फॉलो किये चले जा रहे हैं आंखें बन्द करके, क्या प्रेरणा ले पाते हैं आप उससे, जिससे आपके भीतर कुछ होने अथवा घटने की आप संभावना पाते हैं।
कुछ भी दोहराया जा ही नहीं सकता जगत में, प्रत्येक घटना अनूठी है, इसलिए सभी रिचुअल, सभी क्रियाकांड सिर्फ एक दूसरे की नक़ल, धोखाधड़ी हैं, पाखंड हैं।
और सोने पर सुहागा आजकल तो अनिष्ट अपनी पराकाष्ठा पर है जब भारत में प्रत्येक सौ किलोमीटर पर शास्त्रीय व्याख्या के आधार पर इतना मतभेद व्याप्त है, और हमारी आपकी शै पर ही ये बढ़ता ही जा रहा है! अरे आप कब-तक भोले बने रहने का स्वांग रचते रहेंगे, आपके अन्दर ज़रा सी भी जीवन को जानने की प्यास है तो भूलकर भी किसी की पुनरुक्ति ना ही करें तो बेहतर होगा, क्योंकि वहीं धोखा आ जाता है, और प्रामाणिकता खो जाती है।
याद रखिए, प्रामाणिक के लिए ही मुक्ति है, पाखंड के लिए कोई मुक्ति नहीं है, और आप कितना ही लाख सिर पटक लें और कहें कि मैंने भी तो वैसा ही किया था, जैसा मुझे बताया गया था, मैंने भी तो ठीक अक्षरश: गुरु अथवा ज्ञानी के आदेश, उनके नियमों का पालन किया था, फिर यह अन्याय व अनर्थ क्यों हो रहा है मेरे साथ? दरअसल अक्षरश: पालन का सवाल ही नहीं है, परमात्मा ने ऐसी कोई प्राकृतिक अप्राकृतिक व्यवस्था ही नहीं दी है।
आप अपने ईश्वर को अपने तरीके से भजिए, दूसरे के बताए मार्ग पर चलकर नहीं, स्वयं महसूस करके अपने अनुभव, अपने आनन्द, अपने कम्फर्ट को आधार बनाईये अपनी मुक्ति का, शास्त्रीय गोल गोल बातों से कोई कहीं तक कभी नहीं पहुंच सका, कोई पहुंचा हो तो मुझे भी बताईयेगा।
परमात्मा को नक़ल पसंद नहीं है, अपने जीवन का लेख आप स्वयं ही लिखेंगे तभी वो परमात्मा भी आपको भी उचित सम्मान व उपहार दे सकेगा।
-अतुल् अग्रवाल, काशीपुर