• 01 November 2024

    दीपावली

    दीया सदा सहाय

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    अतुल्या-टाॅक्स: दिनांक 01.11.2024

    अंधेरे से लड़ने के लिए एक जलता हुआ दीया काफी है, यह अभी अभी हमने रात ही अनुभव किया है.. दीये की लौ को गौर से देखें, इसमें हमें अपनी संस्कृति के लिए ऊर्जा दिखाई देती है, इसलिए मैं सबसे कहता हूं, उनसे भी जिनके लिए दीपावली उनके त्योहार नहीं भी हैं, कि इस पर्व में हमें एक दीप तो अवश्य जलाना चाहिए!

    यूं हम हिंदू समाज के लक्ष्मी उपासक लोग विश्व में कहीं भी रहें, दीपावली के शुभ मुहूर्त में लक्ष्मी पूजन अवश्य करते हैं, निर्बल-सा दिखने वाला छोटा-सा ये मि‌ट्टी का दीया जब प्रकाशमान होता है तो उसके रूप-रंग और जमात की अहमियत खत्म हो जाती है.. क्योंकि दीये की बाती सिर उठाकर चहुंओर सिर्फ प्रकाश की सौगात बांटने लगती है, फिर वो सिर्फ अंधेरे से लड़ती है ना कि व्यक्ति या व्यक्ति निर्मित किसी व्यवस्था से।

    कार्तिक मास के पर्वों की शृंखला में ये पंच-दिवसीय दीपमालिका पर्व जहां भारतीय संस्कृति के रहस्यों को छिपाए हुए है, वहीं समाज को साल दर साल नई चेतना, नया संदेश, नव स्फूर्ति और नवीनतम शक्ति के लिए प्रेरित भी करता है, आपने अवश्य नोट किया होगा इस मास की अमावस्या का अंधकार सालभर की अमावस्याओं में सबसे ज्यादा सघनतम होता है, शायद इसीलिए इस घुप्प अंधियारी रात में एक छोटे-से दीपक का प्रकाश कुछ खास ही है।

    यूं तो दीयों का प्रकाश सदियों से मनुष्य को राह दिखाता आ रहा है, मगर दीपावली की अंधियारी रात में यही नन्हा सा दीपक लक्ष्मीजी को भी राह दिखाता ही होगा ऐसा मेरा यकीन है, जिसके चलते लक्ष्मी का आगमन पृथ्वी लोक पर हम मनुष्यों के घरों में होता है।

    कर्म और भाग्य की अनूठी जुगलबंदी दीपावली पर ही देखने को मिलती है, कभी गौर कीजिए दीपावली के दिन सूर्य तेजहीन, चंद्रमा ज्योतिविहीन हो जाता है, यही कार्तिक कृष्ण अमावस्या की अंधेरी रात की किस्मत है, लेकिन मानव को परमात्मा ने कर्म करने की आज़ादी दी है, जिसके कारण अनादिकाल से दीपावली की रात्रि में दीपमालाओं द्वारा कर्म कर उजाला किया जाता है जो अपने आपमें नियति को टक्कर देने के लिए पर्याप्त है।

    दीपावली पर माटी के दीपक जलाने की परंपरा का भी अपना एक अलग भाव और व्यंजना है, हम इसे एक सही समझ के साथ जब सात्विक भाव और व्यंजना को आत्मसात कर लेते हैं, तब दीपावली का दीया महज एक दीप नहीं रह जाता, बल्कि एक आलोकित सभ्यत्ता और संस्कृति का प्रतीक बन जाता है, प्रकृति माता की गोद में दीप इठलाता है, लेकिन अपना छोटा-सा अवदान देकर इतराता नहीं, आलोक का मूल्यांकन दीप और सूर्य के अवदान से नहीं, बल्कि उसके संकल्प से करना चाहिए

    रात भर प्रकृति माता से विनम्र भाव से दीप प्रार्थना करता रहा मां मैं बहुत छोटा दीप जरूर हूँ, लेकिन मैं अंधकार को परास्त करने का बल लेकर आया हूं, हम मानवों ने जब दीप का संकल्प सुना, हमें लज्जा आई, हमनें तो अंधकार और गंदगियों को दूर करने का कभी व्रत लिया ही नहीं, आज हम स्वच्छता और प्रकाश को जीवन का हिस्सा बनाने का व्रत लेंगे और अंधकार को परास्त करके रहेंगे।

    जब जब सामूहिक रूप से दीपमाला की श्रृंखला में मानव द्वारा एक ही निश्चित समय में असंख्य संख्या में छोटे-छोटे दीये जलाए जाते हैं तो यही निर्बल से दिखने वाले दिये नियति को टक्कर देने के लिए तैयार हो जाते हैं..

    यहां अगर इसके वैज्ञानिक तथ्य पर चर्चा भी हो तो यह विषय और प्रासंगिक हो सकता है, दरअसल सूर्य, चंद्र और पृथ्वी से उत्सर्गित विशेष प्रभावों की गणनाएं करने में सक्षम हमारे पूर्वजों द्वारा हमको दिये गये उपहार हैं ये हमारे पर्व.. हमने प्रमाणिकता से यह भी जाना है कि कार्तिक मास की अमावस्या को सूर्य अपनी नीच तुला राशि में होने के कारण मंद पड़ जाता है और चंद्रमा, सूर्य के साथ अस्त हो जाता है, इस तरह सूर्य और चंद्र की इन विशेष अवस्थाओं में एकमात्र दीये की लौ का प्रकाश ही सहायक सिद्ध हो सकता है उस विशेष अंधकार से लड़ने में, सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश के बाद दीपक की लौ ही अग्नि का तीसरा स्वरूप है, जो पृथ्वी पर जीवनी शक्ति यानी लाईफ फ़ोर्स को आकर्षित करती है।

    देखा जाए तो दीये की ज्योति अग्नि का सबसे लघु स्रोत है, वर्षों बरस से हमें बताया गया है कि भवनों और मैदानों पर दीप प्रज्वलन की बड़ी बड़ी श्रंखलाओं के साथ साथ सूनी राहों, गलियारों पर, अंधेरे आंगन में, प्रत्येक उपेक्षित गली मौहल्लों व हमारे घरों के वीरान पड़े कोनों में भी दीप रखकर उस जगह को प्रकाशमान किया जाना शुभ होता है।

    और एक संकल्पित दृष्टिकोण है धनलक्ष्मी के बारे में, दीपमालाओं के प्रकाश से उनके स्वागत में हमारे श्रम और तप, दोनों का संयुक्त रहस्य छिपा हुआ है, दीपक श्रम का और जलती लौ तपस्या का प्रतीक है, इतनी सघन अंधेरी रात में जलते हुए दीपक की लौ, सूर्य का प्रतिरूप बनकर हमको कर्मण्यता और जागरूकता का मैसेज देती है।

    दीपक की लौ की कंपन वातावरण में व्याप्त नेगेटिविटी को खत्म करती है, दीपक की लौ इस पर्व पर अंधेरे से लड़ने की हमें प्रेरणा ही नहीं ताकत भी देती है, यह सृष्टि, अंधेरे और उजाले की संयुक्त संतान है, दरअसल दिये की रौशनी अंधेरे को नष्ट नहीं करती बल्कि उसी को उजाले में तब्दील कर देती है, मुझे तो हकीकत में लगता है अंधेरा दीपकों के प्रकाश से डरकर पृथ्वी छोड़कर पाताल में चला जाता होगा।

    वैज्ञानिकों ने तमाम अपने प्रयोगों में माना है कि सूर्य, चंद्र और पृथ्वी की ब्रह्मांड में एक निश्चित स्थिति बनने पर तीनों ही अपने आपमें एक विशेष प्रभाव उत्सर्गित करते है, इसलिए आकाशीय ग्रह पिंडों का दीपावली महापर्व पर विशेष योगदान रहता है, सूर्य, चंद्र और पृथ्वी, इन तीनों पिंडों की ब्रह्मांडीय ऊर्जा लक्ष्मी को पृथ्वी लोक पर आने के लिए आकर्षित करती है।

    शायद इसी वैज्ञानिक तथ्य को केंद्र में रखकर दीपावली के दिन लक्ष्मी जी की उपासना में अग्नि की प्रधानता रखी गई होगी, सूर्य हम मनुष्यों की आत्मा है और चंद्रमा हमारा मन, जब कार्तिक अमावस्या के दिन आत्मा (सूर्य) के साथ-साथ मन (चंद्रमा) भी तुला राशि में प्रवेश करता है तो आत्मा और मन का तुला राशि में मिलन ही उत्सवधर्मिता का चरम है, इसी लिए हम भारतीय बहुत उत्सवधर्मी हैं, हमारी आत्मा और मन के मिलन के साथ कार्तिक अमावस्या का योग ही इस दिन को दीपावली का रूप प्रदान करता है, पर्व मौसमों के हिसाब से ही मनायें जातें हैं, ये न केवल आध्यात्मिक बल्कि इसका एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है।

    सभी जानते हैं कि कार्तिक अमावस्या तक लगभग वर्षा ऋतु समाप्त हो जाती है, चातुर्मास में वर्षाकालीन रोगजन्य कीटाणुओं यानि बैक्टीरिया की बहुतायत होती है, बहुत ऊंची बदलियों से घिरा आकाश, सूर्य तेज की अल्पता, जल की बहुलता, वातावरण की आर्द्रता रोगजन्य कीटाणुओं को जन्म देती है, ऋतुकालीन ज्वर व गले के इन्फेक्शन का जो़र होता है, ऐसे में ही अग्नि ज्योति की जरूरत होती है, मिट्टी के दीये में घृत या सरसों का तेल डालकर जलाने से डेंगू और मलेरिया के मच्छरों के साथ-साथ कीट-पतंगे भी समाप्त हो जाते हैं और ऑक्सीजन की मात्रा न घटने से पर्यावरण भी शुद्ध रहता है, सरसों के तेल में पाया जाने वाला खास रसायन जब जलता है ना तो एक ऐसी गंध निकलती है, जिससे मच्छर और अन्य कीट बेहोश होकर मर जाते है, शायद इसीलिए सरसों के तेल से मिट्टी के दीये जलाने की परंपरा हमें सिखाईं गई होगी..

    ज्योति का शिखर भले ही अग्नि हों, लेकिन आधार तेल से भरा हुआ दीया ही है, मिट्टी का दीया, सरसों का तेल और कपास की बाती, अपने परिश्रम से जलता हुआ एक दीया सूर्य, चांद और तारों से कम महत्वपूर्ण नहीं है..

    खैर स्थान चाहें कोई भी हो, एक छोटे से निर्बल दीये का कर्तव्य तो वही रहता है, यानि अंधियारा हटाना और उजियारा बांटना..!


    अतुल अग्रवाल, काशीपुर।



    अतुल अग्रवाल


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ऋचा दीपक कर्पे - (01 November 2024) 5
वाह, बहुत ही सुंदर और ज्ञानप्रद लेख, धन्यवाद!

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