आज सुबह जब बाहर टहलने को निकली;
गाड़ियों के कांच हल्के धुंधले दिखे,
पानी की बूंदें उन पर आहिस्ता नीचे की ओर खसकती दिख रही थी
किसी के आगमन का संकेत मिला;
हां शायद 'शरद' अपने कदमो के निशान छोड़ गया था।
दिनकर भी अब अपना तेज दिखलाने लगा है,
छतों पर, छज्जों पर पुराने गद्दे, कपड़े, और कम्बल अंगड़ाई लेकर आंखे मिचमिचा रहे हैं।
घर के बाहर सीमेंट की ढलान पर जो काई अब तलक अपनी हरीतिमा की चादर बिछा वर्षा बूंदों से अपनी झोली भर रही थी,
वो भी अब रंग बदल कर फैलाव सिकोड़ने लगी है।
समझ गई कि अब विदाई की घड़ी आ गई।
कभी कभी लगता है, जैसे मानव के ह्रदय को वर्षा प्रारंभ में तो उल्लासित करती है, परंतु सूरज की नाराज़गी अधिक समय तक सही नहीं जाती।
अपनी आभा से जग सजग करता भास्कर जब स्वयं ही सुस्ताने लग जाए तो मानव के विवेक को कौन सचेत करे?!
कौन उसकी आंखों में अपनी किरणों को टॉर्च की तरह डालकर उसे जागने और सक्रिय होने को बाध्य करे?!
ये शरद और भास्कर की जुगलबंदी खुशियों का पिटारा लेकर आई है। अपनी क्षुधा पर नियंत्रण के साथ ही देवी को आमंत्रण, असत्य पर सत्य को पुनः विजयी होते देख आशान्वित करता विजयादशमी का पर्व, सदा ही स्मरण करवाता रहेगा कि जैसे ऋतु परिवर्तित होती है, काले मेघों को चीर सूरज पुनः अपना वर्चस्व स्थापित करता है, उसी प्रकार चाहे पाप कितना ही पराक्रमी हो, परंतु पुण्य की पुनीत भावना सदा ही उस पर भारी है।
यद्यपि बुराई का अंत शस्त्रों द्वारा ही किया गया परंतु मन पर मंडराए द्वेषों को पराजित करने हेतु प्रभु भक्ति से बड़ा कोई शस्त्र नहीं।
हां जिस तरह शस्त्रों का प्रयोग करना भी एक कला है उसी तरह ईश्वर स्मरण तथा उनकी आराधना भी उचित प्रकार करना तथा मंशा का सही होना भी आवश्यक है।
केवल स्वार्थ सिद्धि हेतु किया पूजा पाठ तो व्यापार समान है। परंतु निस्वार्थ भक्ति भगवान से हमारे अटूट संबंध का परिचायक है।
खैर, धरती वासियों का ऋतुओं के साथ संबंध भी अनूठा ही है। और हर ऋतु का किसी ना किसी देवता से संबंध और उनका आध्यात्मिक कारण। यह सब कितना गहरा सा प्रतीत होता है, क्योंकि इसका मनुष्य पर केवल शारीरिक ही नहीं अपितु मानसिक प्रभाव भी पड़ता है।
इस शरद ऋतु में जिस तरह हम पुराने सामानों को पुनः सूरज का ताप दिखलाते हैं तथा ना काम आने वाली वस्तुओं को चौखट से बाहर कर देते हैं, ठीक उसी प्रकार हमें भी जरूरत है स्वयं के विचारों को एक नयी रोशनी में पुनरावलोकन करने की, और साथ ही अब तलक जो दुर्भाव मन में घर बनाए बैठे थे उन्हें अपने मानस और अंतस से बाहर करने की।
ऋतु परिवर्तन का स्वागत करते हुए उसकी उपयोगिता को भली-भांति समझकर ही बदलाव का आनंद लिया जा सकता हैं।
निशी ✍️