हर तरफ तुम ही तुम।
क्यों नजर आने लगे।
देखता हूं चारों तरफ।
तुम मुझे भाने लगे।
ऐ कैसा मौसम है।
जो मन को खींचता।
कैसी है यह हवा।
जो तुमको ही खोजता।
ये कैसी प्यास है।
और भी बढ़ाने लगे।
नहीं दर्द इसमें थोड़ा।
फिर भी दर्द है।
मौसम है खुशनुमा।
फिर भी सर्द हैं।
मुझे तो बस यादों से।
धीरे धीरे जलाने लगे।
गगन की ओर देखूं।
तुम ही हो दिखते।
धरा की ओर देखूं।
तुम ही हो दिखते।
खत्म कब होगी ए बातें।
जो बेवजह रिझाने लगे।
गिरधारी लाल चौहान व्याख्याता
सक्ती छत्तीसगढ़