19आसान नहीं होता गहरी वेदनाओं और पीड़ाओं को स्वर दे पाना। हलक तक आकर ठहर जाते हैं लफ्ज़। लफ्ज़; जिनमें मरहम और घाव की शक्ति समाहित होती है। पर उलझन कि, किससे कहें, और क्या कहें! कई बार विचार आता है, कि कहकर भी क्या होगा! सही-गलत, इंसानियत, हालात और अपने-पराए के जाल में फांसकर, ये दिखावटी रिश्ते अपनी नाकामियों पर पर्दा डाल देते हैं।
पर सच तो यह है कि ह्रदय के भीतर जो घाव और कसक लग जाए, तो असंभव है उनका भर पाना और मिट पाना। क्योंकि समय धारा कई बार अमृत तुल्य ना होकर उधेड़ देती है किसी तरह जोड़-तोड़ कर रफू किए जख़्मों को। कोई पीर हकीम वैद्य भी जान ना पाए ऐसे नसों में दबा होता हैं ये दर्द का मर्ज़।
कुछ कहने से बेहतर है, माफी देते चलो सबको, क्योंकि हमारे मन को समझने वाले विरले मिलते हैं। ये रास्तों के मुसाफिर बस मुस्कान देख बहल जाते हैं। अपनी मंजिल की तरफ दौड़ते जा रहे इन राहगीरों के पास कहां इतनी फुर्सत कि थमकर किसी सहमे दिल का हाल लें?! पाने की चाह और खोने का डर लिए हर कोई किसी दूसरे को अपना प्रतिद्वंद्वी समझता है। अपनी ज़िंदगी, अपना रास्ता, अपना मुकाम शायद यही ध्यान रखना ज़रूरी है। इसी सिद्धांत पर, अप्राप्य लक्ष्य की अभिलाष लिए यह संसार केवल एक निरंतर दौड़ में अग्रसर है। तुम भी चलते चलो, अपनी मंजिल की ओर.....
मंज़िल तुम्हें पुकार रही थी,
तुम ही राह भटक गई थी।
कहने-सुनने की चाहत में,
कहा सुनी भी हो गई थी।