• 29 October 2025

    मौसम, प्रकृति और हम

    ये बदलाव ठीक नहीं!

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    वह समय जब गुनगुनी धूप की चाह में मानव, सूरज की ओर तकता है। मद्यम शीतल पुर्वा में सांसे ताज़ी भरता है।
    सब्ज़ियों की हरियाली, सेहत में वृद्धि करती है। चाय की अदरक वाली चुस्की तन मन को सुकून देती है।
    ऐसे में जब अखबार उठाया, तो खबरों में था काला बादल छाया। हर खबर भरी तबाही के मंज़र से, कोई जलकर खाक हो गया, कोई लड़ रहा तूफां से। पढ़ने को और भी मन किया,पर जितना पढ़ती गई खबरें, मन उतना विचलित हो आया।
    यह तूफान जो 'मोंथा' आया है, कितना विनाश लाया है। धूप की चाह में हम बैठे थे, सर्द हवाएं पर बह रही। लगता जैसे खुशियों के बीच कोई रुकावट सी आ गई। समंदर का नाम सुनते ही चैन देता मंज़र आंखों के आगे आता है। पर कई बार ये विशाल सागर बेचैनी सी दे जाता है। बलखाती सी लहरें जब कद ऊंचा कर आती हैं, अपने साथ कई सारे भयावह नज़ारे लाती है। थमने के इसके इंतज़ार में मन बैठा सा जाता है। मौसम जब खुशनुमा आता है, क्यों दर्द भी साथ ले आता है???

    कहीं पानी ने डर फैलाया है, कहीं आग ने कहर बरपाया है। कहीं परिवहन साधन खाक हो रहे, कहीं चूल्हे घर को फूंक रहे। विस्फोटों ने इस संसार को धुंआ घर बनाया है। परेली जल रही वर्षों से थी, अब वातावरण बिगाड़ रही!? परमाणु बम और विस्फोटकों की क्या गंध उन्हें ना आ रही!? ये तो वही बात सी हो गई, पैसा अरबों का गबन करके वो आसानी से छूट गए, भूख के खातिर की सौ रुपए की चोरी,अब जेल में रात से बंद है। प्राकृतिक संसाधन अब बन रहे आपदा, दिन पर दिन हालात बिगड़ते ही जा रहे।
    खबर पढ़ूं तो क्या पढ़ूं, नकारात्मक विचार हर ओर से आ रहे। कहां कौन कितना है सुरक्षित, डर के बादल मंडरा रहे।

    बहरहाल, यदि आप ये पढ़ रहे हैं, तो बेशक कहीं सुरक्षित हैं। बस यही छोटी सकारात्मक सोच, ज़हन को तसल्ली देती है, कि चाहे विपदाएं कितनी भी हों, कुछ तो अच्छा हो रहा है, कोई खुशी से जी रहा है। छठ पूजा में मन कर समर्पण, वातावरण भक्तिमय कर रहा है। यह तूफान के मध्य में दीपक सा है। अग्नि के घेरे में सरोवर शीतल सा है।
    आपसे मन की बात की साझा, विह्वल मन में अब सुकून सा है।




    डॉ निशी मंजवानी


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सिद्धार्थ रंजन श्रीवास्तव “अदम्य” - (29 October 2025) 5
प्रकृति को अपना काम बहुत अच्छे से आता है, उसे पता है संतुलन कैसे बनाये रखना है। हाँ यह सच है इसमें बहुत से लोग अपनों को खो देते हैं, कुछ खुद खो जाते हैं मगर यही तो शाश्वत नियम है जो चलता रहता है। जितना हम प्रकृति को नुकसान पहुँचाते हैं उतना प्रकृति हमें।

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