मेरी जिंदगी, मेरी पतंग
एक मेरी भी पतंग उड़ती थी,
खुले आसमान में जिंदगी के।
बिना डोर के, मन के माफिक,
जब से काट डाली,
संवेदनाओ की डोर किसी ने,
तब से छूट गया है पतंग संग शोर।
वो कटी अंगुलियाँ,
ना जाने कब दिल को काट गई।
वो शत का शोर,
ना जाने कब दिल में थम गया।
अब भी उड़ती है
जिंदगी की पतंग मेरी।
पर ना कोई विश्वास की,
ना कोई भरोसे की डोर है।
अब तो खुद को खुद से,
लड़ना और मानना है।
एक बार फिर बिना डोर,
जिंदगी की पतंग उड़ाना है।
भरत (राज)