कहते हैं नर व नारी एक दूसरे के पूरक होते हैं ना कि प्रतिस्पर्धी। इतिहास उठाकर देखें तो भी यही पाएंगे कि हर कहानी की धुरी नारी ही रही है। उसकी अस्मिता तथा विचार दोनों ही बहुत मायने रखते हैं किसी भी समाज के लिए। *अपने विचारों तथा संस्कारों से वह अपने आसपास का वातावरण गढ़ती है*। बच्चे सबसे अधिक समय अपनी मां के संग ही व्यतीत करते हैं। वे वही सीखते व बोलते हैं जो वह अपनी प्रथम गुरु को करता हुआ पाते हैं। और बच्चे ही तो देश का या किसी परिवार का भविष्य होते हैं। वह जैसे भी संस्कार सीखेंगे उसे आगे जाकर अपनी आने वाली पीढ़ी को भी सिखाएंगे। इसी प्रकार जो आदतें उन्हें सिखाई गई वह उनकी प्रकृति बन गई और उनकी प्रकृति ही प्रवृत्ति बन संस्कृति और समाज की सोच बन जाती है।
एक बार एक सत्संग में एक महिला ने गुरूजी से कहा कि "हमारे बच्चे तो भगवान को मानते ही नहीं और ना ही पूजा पाठ में उनका कोई रुझान है।" महिला की बात सुन गुरूजी ने कहा कि क्या आपने अपने बच्चे को कभी किसी बात के लिए डांटा या मारा है। उस पर महिला ने 'हां' में जवाब दिया। तब उस गुरूजी ने कहा कि जब आप कई ऐसी बातों के लिए अपने बच्चे को डांटते या समझाते हैं और उन पर दबाव भी डालते हैं तो फिर आप उन भगवान का नाम लेने, उन्हें स्मरण करने अथवा प्रार्थना करने पर जोर क्यों नहीं डालते? वो इसीलिए क्योंकि आप स्वयं भी इस बात को इतना महत्व नहीं देते। यदि भगवान का स्मरण आपके लिए आवश्यक होता या आपकी प्रतिष्ठा की बात होती तब आप हर संभव तरीका अपनाते उससे अपनी बात मनवाने का।
तो सार यह है कि संस्कृति की जन्मदात्री भी एक स्त्री ही है जो घर में नियम तथा कायदे द्वारा एक परिवार तथा शनैः शनैः पूरे समाज में परिवर्तन की लहर लाती है।
एक समय था जब घर तथा घरवालों का खयाल रखना किसी भी स्त्री के लिए सर्वोपरि था। उसके जतनों का परिणाम था कि पूरा घर उसी पर निर्भर था। परंतु यह बात उसे तब खलने लगी जब उसे तुलना किया जाने लगा। उसकी मेहनत को नज़रंदाज़ कर कमतर समझा जाने लगा। धीरे धीरे उसे लगा कि वह घर तथा बाहर दोनों ही जगह निपुण है तब उसने बाहर काम करना शुरू कर दिया।और एक समय ऐसा आया कि घर का काम स्त्रियों को निम्न लगने लगा और नयी ही संस्कृति और रिवाज़ का दौर चला।
कहने का तात्पर्य है, हर दौर की नायिका स्त्री ही है।
निशी मंजवानी ✍️