• 01 August 2020

    कविता

    दशरथ मांझी

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    दशरथ मांझी


    दशरथ

    जहाँ कहीं, जिस रूप में सुनाई देती है यह

    चतुर्वर्णी संज्ञा

    उभरने लगता है,ऐश्वर्यशाली राजपुरुष होने का गौरव

    दाम्पत्य और ऋषि होने के अद्भुत समन्वय का गर्व-बोध

    दरबारियों से सुशोभित राज-दरबार

    बेशकीमती, रत्नजड़ित लटाओं वाली झूमरों की रम्य

    ध्वनियों से

    झनझना उठते हैं कर्णपट


    शास्त्रार्थ की तान-अनुतान से

    काँपती हुई पृथ्वी और

    बौद्धिक वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा में

    आहत प्रजा !


    चौकन्ने अंगरक्षकों की कतारें और

    शयनागारों की अविच्छिन्न श्रंखलाओं से मंडित

    महाराज दशरथ के ऐन्द्रजालिक ऐश्वर्य के समक्ष

    नहीं सूझता

    इन्सानी संज्ञा का दूसरा कोई चेहरा


    और तुम ! दशरथ मांझी, तुम

    इस नाम की भव्यता के साथ

    इतने दिनों तक, आख़िर किसके बूते

    किस सनक में !! पाले रहे

    कुछ पृथक दिखने का फ़ितूर

    राजवंशों के उत्तराधिकारियों से राय-मशविरे के बग़ैर

    ठान लिया, तुमने

    पहाड़ के सीने पर जन-पथ के निर्माण का स्वप्न

    आख़िर क्यों पैदा किया ?

    राजपथ से भिन्न,किसी अन्य पथ का विकल्प

    राजपथ की प्रतीक्षा में,जीवन के तुच्छ बाईस वर्ष

    गुजार सकते थे, उदरपूर्ति के व्यामोह में।


    शायद बच जाते

    जी लेते और चार, छः वर्ष

    राज-प्रसाद की खुराक पर पल सकते थे

    जुगाड़-जुगत बिठाकर, गाँठ सकते थे सुख-सुविधाएँ

    जी सकते थे चैन की ज़िंदगी


    दशरथ मांझी !

    तुम नहीं माने, अड़े रहे अपनी ज़िद पर

    स्वप्न को आकार देने का हठ

    बढ़ता ही गया दिनोंदिन

    पुरस्कारों, सांत्वना और आश्वासनों के

    विरुद्ध, तुम्हारा हठ


    दशरथ मांझी !

    तुम्हें भुगतना ही होगा कठोर दंड, स्वाभिमानी

    अदने हथौड़े और छेनी की धार पर

    रचते रहे , सत्ता के तिलिस्म का तोड़

    विकल्पों की नवेली दुनिया


    दशरथ मांझी

    सत्ता -सम्मान को ठेस पहुंचाने की क्षतिपूर्ति में

    तुम क्या दे सकते हो ?

    तुम्हारी औकात ही क्या दशरथ-मांझी ?

    बढ़ती शारीरिक रुग्णता, बस्स

    यही सही

    बदला तो लिया ही जाएगा, दशरथ मांझी

    तुमसे, तुम्हारी भावी पीढियों से

    ढूढ़ी जाएँगी, तुम्हारे

    सच,साहस और स्वाभिमान की वजहें


    किन्तु, इसके बाद

    'दशरथ' कहते ही, नहीं उभरेगा किसी राजप्रासाद का वैभव

    कोई तिहत्तर वर्षीय बूढ़ा

    अपनी छेनी-हथौड़ी सम्हालते

    उठ खड़ा होगा पृथ्वी के सीने पर

    किसी असंभव को आकार देता हुआ

    कोई दशरथ मांझी !!


    अमित एस. परिहार




    Amit S. Parihar


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